tag:blogger.com,1999:blog-80320548113708497532024-03-05T06:49:56.378-08:00सुजलाम- इधर- उधर सेUnknownnoreply@blogger.comBlogger118125tag:blogger.com,1999:blog-8032054811370849753.post-31085121782112511842008-09-24T11:09:00.001-07:002008-09-24T11:12:24.224-07:00शिवनाथ के बारे मे…..कुछ वर्ष पहले शिवनाथ नदी बहुत चर्चा में था। चर्चा मे तब आया जब एक प्रायवेट कंस्ट्रक्शन कम्पनी (रेडियस वाटर कम्पनी), जिनके मालिक राजनान्दगाँव के कैलाश सोनी है को सरकार ने नदी का 23.6 कि. मी. का क्षेत्र 22 वर्ष के लिये लीज़ पर दे दिया है और नदी के पानी के उपयोग को लेकर रेडियस वाटर कम्पनी के कर्मचारियों और बान्ध के किनारे के मोहलाई ग़ाँव के लोगो के बीच झड़प हुई। गाँव वालो के मुताबिक पहले तो रेडियस वाटर कम्पनी और दुर्ग कलेक्टरेट की ओर से पानी का उपयोग नही करने के लिये नोटिस मिला और बाद मे कंपनी के कर्मचारी नदी से लगे पम्प को निकालने गाँव पहुचे। मछुआरों के जाल भी काटे जाने लगे। ग्रामिणो के आक्रोशित होने और बाद मे स्थानीय संगठनों के सहयोग और हस्तक्षेप होने के बाद यह मसला पूरी तरह से शांत हो गया।<br /><br />वर्तमान मे बान्ध के ऊपर की ओर बने गाँव महमरा और मोहलई के लोग नदी के पानी का भरपूर उपयोग कर रहे है। रेडियस वाटर कम्पनी भी किसी को पानी लेने से मना नही कर रही है। किसी को कोई तकलीफ नही है और किसी प्रकार का कोई आन्दोलन नही हो रहा है। लेकिन कल को यह सब फिर हो भी सकता है इसका डर तो अभी भी गांव वालो को है।<br /><br />छत्तीसगढ़ अपने परम्परागत जल संग्रहण के लिये भी जाना जाता है जैसे छोटे-बड़े तालाब, डबरी, कुआं आदि। यहाँ के गावों में बहुत से छोटे बड़े तालाब देखे जा सकते है यहाँ तक कि कई गाँव मे तो 10 से 15 तालाब भी है। जिसका उपयोग खेती के लिये, पशु के लिये, नहाने धोने के लिये और मछली पालन के लिये किया जाता है। लेकिन शिवनाथ नदी के किनारे के इन गावों में एक या दो ही तालाब है। कहीं-कहीं कुएँ भी है। गाँव वाले पूरी तरह से नदी पर निर्भर है। इसके अलावा यहाँ के आसपास के लगभग हर गाँव मे 60 से ज्यादा बड़े एवं छोटे मोटर पम्प और नलकूप है, खेती के लिये और पीने के लिये। बान्ध बन जाने से महमरा और मोहलाई जैसे गाँव के लोग इस गर्मी मे भी भरपूर खेती किसानी कर रहे है और दो फसल ले रहे है, यही नही नदी के किनारे किनारे निजी स्तर पर भारी मात्रा मे बड़े एवं छोटॆ पैमाने पर तरबूज, खरबूज, पपीता, साग-भाजी की भी पैदावारी हो रही है।<br /><br />लेकिन नीचे के गाँव की हालत ऎसी नही है मलौद और बेलौदी जैसे गाँव मे कुछ वर्ष पूर्व जहाँ बड़ी मात्रा मे अमरूद के बगीचे थे वे सब अब धीरे धीरे सुख रहे है। बेलौदी के सरपंच पति ने बतलाया कि यह अमरूद गाँव वालो के लिये आय का एक बहुत बड़ा स्त्रोत था। यहाँ के अमरूद आस पास के राज्यो मे भी जाते थे। उन्होने इस बात से इन्कार नही किया कि जल स्तर में आई गिरावट इसका एक प्रमुख कारण हो सकता है।<br /><br />ऎसे ही नदी के किनारे के एक गाँव कोटनी में एक रपटा का निर्माण हो रहा है लाखों की लागत से जो नगपुरा को सीधे कोटनी से जोड़ेगी और फिर आगे दुर्ग तक जायेगी। यहाँ मेरी मुलाकात सिविल इंजिनीयर से हुई जो पंचायत मे बैठे हिसाब किताब कर रहे थे। शिवनाथ नदी पर उनका कहना था “पानी को बांध देने से गाँव को फायदा ही हुआ है। पहले तो पानी आगे बह जाता था लेकिन अब यहाँ आस पास के किसान बढ़िया से खेती कर रहे है। गर्मी मे तो नदी वैसे भी सूख जाती थी। सरकार की योजना है की जगह जगह चेक डेम बने, तो यह तो अच्छी ही बात है।“ लेकिन उनके पास इस बात का उत्तर नही था कि इन गावों मे तो ठीक है लेकिन अगर इसी तरह कुछ खास जगहो पर ही पानी का पूरा दोहन होता रहा तो उन गावों का क्या होगा जो नीचे की ओर है। साथ ही इस बात पर भी असमंजस्य की स्थिती बनी हुई है कि सरकार तो उस 23.5 कि. मी. के अन्दर के हिस्सों पर भी ऎनीकेट और रपटा बना रही जो लीज़ पर दी जा चुकी है। कल को अगर कम्पनी और सरकार के बीच तनाव की स्थिती आती है तब क्या होगा?<br /><br />नदी के किनारे छोटे बड़े बहुत से कई ईट भट्टे भी है। कोटनी, पीपरछेड़ी गाँव के आस पास ईट भट्टे है। इनके कारण बड़ी तेजी के साथ नदी किनारे मिट्टी का कटाव हो रहा है। निर्माण क्षेत्र के लिये रेत का भी उत्खनन बड़ी मात्रा मे हो रहा है। इससे काफी बड़े हिस्से मे नदी के दोनो तरफ समतल होना शुरू हो गया है। खेती-बाड़ी के लिये भी किसान, नदी के दोनो तरफ समतल कर रहे है। इससे पंचायत, अधिकारी और स्थायी नेताओं को आंशिक लाभ जरूर हो रहा होगा लेकिन आने वाले समय में नदी का क्या होगा इसकी चिंता शायद किसी को नही है।<br /><br />साथ ही रसमड़ा मे उद्द्योगपतियों द्वारा नदी के आस पास के पूरे खाली सरकारी और खेती जमीन को खरीद लेना है। इससे रसमड़ा के लोगो का नदी के पानी का उपयोग करना तो दूर, नदी तक पहुँचा भी नही जा सकता। पूरे जगह को घेर लिया गया है। रसमड़ा के ग्रामीण खेत के बिक जाने से खेती भी नही कर पा रहे है, पर्याप्त उद्योग नही लगने से रोजगार भी नही मिल रहा है और स्पंज आयरन उद्योग के कारण प्रदुषण भी स्थानीय लोगो के लिये एक बहुत बड़ी समस्या है।<br /><br />इन गाँवों मे केवट, निषाद, ढीमर आदि मछुआरे जाति के लोग भी बहुत है और कुछ परिवार तो पूरी तरह से आजिवीका के लिए नदी पर ही निर्भर है। लेकिन अब धीरे धीरे नदी के पानी मे कमी आने और पर्याप्त मछली नही मिलने के कारण अब ये लोग मेहनत मजदूरी के लिये गाँव और ग़ाँव के बाहर अन्य शहरों में जाने लगे है।<br /><br />नगपुरा जाते समय भरी दोपहरी मे मेरी मुलाकात नगपुरा के एक मछुआरे विष्णु ढीमर (आयु करीब 60 वर्ष) से हुई जो अपने चौथे और सबसे छोटे बेटे (आयु 13-14 वर्ष) के साथ बहुत दूर किसी पोखर<br />से मछली मार कर आ रहे थे। गर्मी के दिनों मे नदी मे पानी नही होने के कारण उन्हे मछली पकड़ने के लिये दूर दूर जाना पड़ता है। वे सुबह सुबह निकले थे और दोपहर एक बजे के आस पास घर वापस लौट रहे थे। आज किस्मत से उन्हे केवल एक भुंड़ा मछली ही मिल पाई। वे याद करते है कि वर्षो पहले शिवनाथ मे बहुत पानी हुआ करता था और बहुत प्रकार की मछलियाँ मिलती भी थी लेकिन अब तो “जलगा”, “सवार” जैसी मछलियाँ नही मिलती, विलुप्त हो गयी है। इनके परिवार मे इनके अलावा और कोई भी मछ्ली नही पकड़ता। घर के बाकी सदस्य (महिलाएँ भी) मेहनत मजदूरी करने है।<br /><br />दुसरी बार फिर पीपरछेड़ी के पास फिर इसी मछुआरे से मुलाकात हुई इस बार वहाँ उनके साथ सात-आठ मछुआरे और थे और सभी नगपुरा के थे। एक मछुआरे को वहाँ एक कछुआ भी मिला।<br /><br />इस नदी को लीज़ मे दिये जाने की चिंता तो सभी को है लेकिन इसकी चिंता करने वाले तमाम लोगो और यहाँ तक कि पर्यावरणविदों से यदि यह भी पूछा जाये कि कितने और किस प्रजाति की मछलियाँ और अन्य जलचर प्राणी इस नदी मे है और कितनी विलुप्त हो गयी है तो शायद ही संतोषजनक उत्तर मिलें।<br /><br />स्थिती आज शायद गम्भीर नही है लेकिन अगर यह लगातार चलता रहा तो आने वाले समय में जरूर पानी की बहुत बड़ी समस्या उत्पन्न हो जायेगी। आश्चर्य की बात है कि शिवनाथ नदी जैसा हाल छत्तीसगढ़ के बहुत सी नदियों का है लेकिन उस पर चिंता और बात नही हो रही है। शायद लाभ की जुंगाईश न हो।<br /><br />शिवनाथ नदी देश का पहला पानी के निजीकरण का और हर प्रकार के दोहन का उदाहरण है इसके लिये कैलाश सोनी से लेकर ग्रामीणों और सम्बन्धित तमाम फिक्रमन्द लोगो को इस पर गौरांन्वित होने कि जरूरत नही है और समय समय पर इस मुद्दे को जिन्दा रखना शायद उतना जरूरी नही है, जितना कि शिवनाथ नदी को मरने से बचाने की है।<br /><br />तेजेन्द्र ताम्रकार<br /><br />साभार -<a href="http://cgavp.wordpress.com/2007/08/24/शिवनाथ-के-बारे-मे/"> जोहार </a><br /><br />also see in http://newswing.com/?p=645#more-645Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8032054811370849753.post-81745415872166893752008-08-27T21:35:00.008-07:002008-08-27T22:00:26.605-07:00दूषित पानी से बढ रहीं बीमारियांमध्य प्रदेश, छतरपुर । जिला चिकित्सालय का बच्चा वार्ड इन दिनों बाल रोगियों से भरा हुआ है। रोगियों की संख्या में तेजी से बढोतरी हो रही है। इन रोगों के पीछे प्रदूषित पानी मुख्य वजह है। गंदा पानी पीकर बच्चे कम प्रतिरोधक क्षमता होने के कारण रोगों की चपेट में आसानी से आ जाते है। <br />जिला चिकित्सालय की ओपीडी में इन दिनों आने वाले कुल मरीजों में से 4॰ फीसदी संख्या बाल रोगियों की होती है। ये बाल रोगी उल्टी, दस्त, पेट दर्द के साथ पीलिया जैसी घातक बीमारियों के शिकार निकलते है। जिले के ग्रामीण कस्बाई क्षेत्रों के अस्पतालों में आने वाले मरीजों में से 6॰ फीसदी मरीज बाल रोगी होते हैं। <br />क्यों होते हैं रोगः बारिश के साथ जमीन में कई अलग-अलग झिरें पानी लेकर जल स्रोतों तक पहुंचती हैं। इनमें कई बार घुली हुई मिट्टी के साथ हानिकारण विषाणु भी पानी में सक्रिय रहते हैं। इस पानी को जब बिना शुद्धिकरण किए बच्चे पीते हैं तो उनके शरीर में विषाणु प्रवेश करके उन्हें रोग ग्रसित बना देते हैं। इन विषाणुओं के कारण बच्चे सामान्य रोगों के साथ कई बार डायरिया और पीलिया की चपेट में आ जाते हैं। <br />क्या कहते हैं डाक्टरः जिला चिकित्सालय के सिविल सर्जन डॉ. हृदेश खरे ने बताया कि बारिश में बच्चे सबसे अधिक रोगग्रस्त होते हैं। कई बार बारिश के पानी में अधिक घूमने या नहाने से वे सर्दी-जुखाम और बुखार के शिकार हो जाते हैं। प्रदूषित पानी पीने से उन्हें पेट संबंधी रोग हो जाते हैं। उन्होंने बताया कि बारिश के मौसम में चाट-पकौडी, पूडी, पराठे, आइस्क्रीम और मिठाई खिलाने से परहेज <br />करना चाहिए। डॉ. खरे का कहना है कि इन सभी चीजों के सेवन से भी रोग बढते है। उनका कहना है कि अधिकांश बच्चों में पेट दर्द, उल्टी- दस्त की शिकायत मिल रही है। कई बच्चे प्रदूषित पानी पीकर बीमार होने के बाद उन्हें समय से उचित इलाज न मिलने से पीलिया जैसे रोगों की चपेट में आ रहे हैं। इस बारे में पालकों को विशेष रूप से सावधानियां बरतना चाहिए।Unknownnoreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8032054811370849753.post-75126144369586095162008-08-27T21:35:00.007-07:002008-08-27T21:54:15.002-07:00दूषित पानी की मछली बढ़ाए कैंसरन्यूयार्क, 7 नवंबर (आईएएनएस)। प्रदूषित पानी से पकड़ी गई मछली कैंसर का कारण बन सकती है। 'युनिवर्सिटी आफ पिट्सबर्ग' द्वारा किए गए एक अध्ययन में अनुसंधानकर्ताओं ने पाया है कि गंदे नालों और कारखानों के प्रदूषित पानी में पलने वाली 'कैटफिश' जैसी मछलियों में हानिकारक तत्व होते हैं। प्रयोगों के दौरान इन तत्वों के कारण स्तन कैंसर की कोशिकाओं का तेजी से विकास हुआ। <br /><br />अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार मछलियां दूषित पानी में मौजूद 'ओएस्ट्रोजेन' और 'क्जेनो-ओएस्ट्रोजेन' जैसे रयासनों को शरीर में सोख लेती हैं जिनसे महिलाओं में स्तन कैंसर का विकास हो सकता है। <br /><br />अनुसंधानकर्ता कोनरैड डी. वोल्ज के अनुसार, ''इस अध्ययन के परिणाम सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिहाज से महत्वपूर्ण हैं। हमारे जल स्रोत भी उस प्रदूषण से प्रभावित होते हैं जिनमें यह मछलियां पलती हैं।'' <br /><br />इंडो-एशियन न्यूज सर्विसUnknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8032054811370849753.post-41481641091195231452008-08-27T21:35:00.006-07:002008-08-27T21:51:21.151-07:00बिहार के भूजल में संखिया की मात्रा खतरनाकपटना (एजेंसी)। बिहार के भूजल में पाए जाने वाले संखिया के अनुपात को खतरनाक स्तर पर माना जा रहा है। प्रदेश के 38 में से 12 जिलों में भूजल प्रदूषित है।<br />आधिकारिक सूत्रों के मुताबिक संखिया मिले पानी का सेवन करने से पिछले कुछ वर्षों में लोगों को सफेद दाग जैसी त्वचा संबंधी बीमारियां हो रही हैं। केंद्रीय भूजल बोर्ड के वरिष्ठ वैज्ञानिक केके सिंह ने कहा कि गंगा नदी के पठार की मिट्टी की जांच में संखिया की एकाग्रता उच्च स्तर पर पाई गई। इससे भूजल प्रदूषित हो रहा है। हाल ही में 12 प्रभावित जिलों में हुए प्राथमिक सर्वेक्षण में यह खुलासा हुआ कि विश्व स्वास्थ्य संगठन की सिफारिश के आधार पर एक अरब में 10 हिस्से (पीपीबी) के तय मानक से भी ज्यादा संखिया पानी में पाया गया। प्रदेश के 316 ग्रामों के 20 हजार नलकूपों में पीपीबी 10 से भी ज्यादा पाया गया। वहीं 235 जिलों के 36 ग्रामों में पीपीबी 50 से भी ज्यादा था। संखिया से प्रभावित जिले पटना, भागलपुर, कटिहार, खगड़िया, बेगुसराय, मुंगेर, लखीसराय, समस्तीपुर, वैशाली, सरन, भोजपुर और बक्सर हैं। यूनिसेफ के मुताबिक प्रदेश की राजधानी के उपनगरीय इलाकों में स्थित नलकूपों के प्रदूषित पानी की वजह से करीब पांच लाख की जनसंख्या संखिया के रूप में धीमा जहर पी रही है। अध्ययन के मुताबिक पटना में भूजल संखिया रहित है। संखिया और प्रदूषित पानी पटना के उपनगरीय क्षेत्र दानापुर और फाथुआ में पाया गया है। विभाग के प्रमुख एके घोष ने भोजपुर, भागलपुर, पटना और वैशाली जिले से लिए गए 28 हजार नमूनों का विश्लेषण करने के बाद कहा कि भोजपुर के पांडे तोला के पानी में संखिया की मौजूदगी सबसे ज्यादा पाई गई।Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8032054811370849753.post-30387816835008415122008-08-27T21:35:00.005-07:002008-08-27T21:50:14.287-07:00सकरी नदी में प्रदूषण रोकने करोड़ रूपए की परियोजनाछत्तीसगढ़ राज्य शासन द्वारा कबीरधाम जिले की सकरी नदी को प्रदूषित होने से बचाने के लिए चार करोड़ 88 लाख रूपए की परियोजना को मंजूरी दी गई है। लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग द्वारा राज्य में नदियों को प्रदूषण से बचाने के लिए पहली बार इस प्रकार की परियोजना हाथ में ली जा रही है। इस योजना के तहत कवर्धा शहर के गंदे निस्तारी पानी को साफ करके सकरी नदी में बहाया जाएगा। साथ ही गंदे पानी का शुध्दीकरण करने के लिए फिल्टर प्लांट एवं शुध्दीकरण प्लांट भी लगाया जाएगा। लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग के अधिकारियों ने बताया कि कवर्धा शहर के गंदे पानी और कचरे का शहर में बहने वाले जारा नाला में मिलने से नाले का पानी प्रदूषित हो जाता है। यह नाला सकरी नदी में मिलता है। नाले के प्रदूषित पानी के कारण सकरी नदी में भी प्रदूषण की समस्या देखी जा रही है। इसे ध्यान में रखकर मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के निर्देश पर नदी को प्रदूषण से बचाने के लिए इस परियोजना की मंजूरी दी गई है। परियोजना के तहत नाले के प्रदूषित पानी सहित शहर की नालियों में बहने वाले गंदे पानी को एक स्थान पर एकत्रित कर उसे शुध्द किया जाएगा। इसके लिए जल शुध्दिकरण संयंत्र की स्थापना की जाएगी। शुध्दिकरण के बाद साफ पानी को विभिन्न प्रयोजनों के लिए इस्तेमाल किया जा सकेगा। शुध्द जल की आपूर्ति से लोगों को जल जनित विभिन्न बीमारियों से बचाव की दृष्टि से भी काफी राहत मिलेगी।Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8032054811370849753.post-86805130798549760532008-08-27T21:35:00.004-07:002008-08-27T21:48:57.064-07:00प्रकृति का दुश्मन काला पानी.... सचिन शर्मा<strong>प्रदूषित पानी बना पर्यावरण के लिए खतरा, खेत बन रहे बंजर, कुँए-नलकूप भी हो रहे प्रभावित</strong>सचिन शर्मा<br />भीलवाड़ा। प्रदेश के लिए अमृत समान महत्वपूर्ण माना जाने वाला पानी भीलवाड़ा जिले में प्रदूषण की समस्या का सबसे ज्यादा सामना कर रहा है। वस्त्र नगरी में चल रहे १९ प्रोसेस हाउस से निकलने वाला यह पानी अपनी प्रवृति इतनी अधिक बदल चुका है कि इसका नाम ही काला पानी पड़ गया है। अपनी काली करतूतों के कारण इस पानी से जिले के तीन दर्जन से अधिक गांवों के ५०० से ज्यादा कुँए खराब हो चुके हैं। हजारों बीघा जमीन भी उजाड़ हो गई है। सरकार और जिला प्रशासन ने जल्दी ही प्रदूषण को रोकने का इंतजाम नहीं किया तो यह भीलवाड़ा के जनजीवन के लिए निश्चित ही बहुत घातक सिद्ध होगा।<br />पाली, बिठूजा, बालोतरा, जसोल और जयपुर के सांगानेर की तर्ज पर भीलवाड़ा में भी प्रोसेस हाउस प्रकृति के लिए काल बनने का काम कर रहे हैं। प्रतिमाह करीब पाँच करोड़ मीटर कपड़ा तैयार करने वाले ये प्रोसेस हाउस जिन रसायनों का उपयोग करते हैं उनसे ना सिर्फ स्थानीय जलस्त्रोत बल्कि बनास और कोठारी नदियों में भी प्रदूषण की भीषण समस्या उत्पन्न हो गई है। जिले के कुँओं में सीपेज के माध्यम से पहुँचने वाला यह पानी कुँओं को झाग से भर देता है। फिर ना तो इसे पीने के उपयोग में लिया जा सकता है और ना खेती करने के। जिन किसानों ने इससे खेती करने की कोशिश की उनकी जमीनें बंजर हो गईं। <br />राजस्थान उच्च न्यायालय इस आशय के आदेश दे चुका है कि प्रोसेस हाउस जीरो एमिशन के निर्देश को नहीं अपनाते हैं तो जिला प्रशासन उन्हें बंद कर सकता है, लेकिन भीलवाड़ा की तरक्की और उद्योगपतियों के दबाव के कारण जिला प्रशासन ना तो जीरो एमिशन का नियम लागू कर पा रहा है और ना इन प्रोसेस हाउसेज को बंद करवा पा रहा है।<br /><br /><strong>ये बने हैं जान के लिए जोखिम</strong><br />काले पानी को डिसॉल्व्ड सॉलिड, सल्फेट, क्लोराइड, फ्लोराइड, नाइट्रोजन, हार्डनेस और कैल्शियम की अधिक मात्रा मिलकर घातक बनाती है। इसको किसी भी प्रकार से इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। जानवर इसको पीकर मौत के मुँह में भी जा सकता है।<br /><br /><strong>यह है जीरो एमिशन का नियम?</strong><br />भीलवाड़ा के प्रोसेस हाउसेज से निकलने वाले पानी को जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग द्वारा पूर्व में ही खतरनाक घोषित किया जा चुका है, क्योंकि यह वॉटर एक्ट के मापदण्डों पर खरा नहीं माना गया था। तब यहाँ राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की ओर से जीरो एमिशन का नियम लागू किया गया जिसके तहत प्रोसेस हाउस प्रदूषित पानी को निर्धारित तकनीकों से प्रदूषण मुक्त करने के बाद अपने ही काम में लें और उसे बाहर बिल्कुल नहीं छोड़ें। लेकिन इस महत्वपूर्ण नियम की ही यहाँ सबसे अधिक अनदेखी होती है और प्रोसेस हाउसेज से यह काला पानी रात के अंधेरे में धीरे-धीरे बाहर छोड़ दिया जाता है।<br /><br /><strong>इन गांवों पर टूट रहा है कहर</strong><br />जिले के जिन तीन दर्जन गांवों के कुँओं और जमीनों पर काले पानी का सर्वाधिक असर हुआ है उनमें मण्डफिया, दर्री, झोंपड़िया, स्वरूपगंज, कल्याणपुरा, चोयलों का खेड़ा, कुम्हारिया, पिपली, मंगरोप, गुवारड़ी, आंमा, ठगों का खेड़ा, आटूण, किशनावतों की खेड़ी, बीलिया, काणोली, सूड़ों का खेड़ा, पातलियास, आरजिया, माण्डल, पालड़ी, सांगानेर, सुवाणा आदि प्रमुख हैं।<br /><br />- प्रोसेस हाउस की निगरानी मुख्यतः राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड करता है। उसकी सिफारिश पर ही जिला प्रशासन कार्रवाई करता है। बोर्ड अगर हमसे मदद माँगेगा तो हम तुरंत कार्रवाई करेंगे।<br /><strong>- अजिताभ शर्मा, जिला कलेक्टर, भीलवाड़ा</strong><br /><br />- काले पानी पर काबू पाने के लिए हमने टास्क फोर्स बना रखी है। हम प्रत्येक प्रोसेस हाउस का नियमित निरीक्षण करते हैं। जीरो एमिशन नहीं पाए जाने पर उस पर कार्रवाई होती है, नियमों की पालना के लिए नोटिस दिया जाता है। यह कार्रवाई जयपुर मुख्यालय से होती है। <br /><strong>- वीरसिंह, क्षेत्रीय अधिकारी, राजस्थान प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड</strong><br /><br />हमने काले पानी की रोकथाम को लेकर न्यायालय में जनहित याचिका लगा रखी है। इस मामले को लेकर आंदोलन भी छेड़ा गया था, लेकिन प्रशासन ना तो इन प्रोसेस हाउस को बंद करवा पाया और ना किसी अन्य जगह स्थानांतरित करवा पाया। प्रोसेस हाउस कपड़ा साफ करने के लिए आधुनिक तकनीक का उपयोग करें तो यह समस्या आधी सुलझ सकती है। <br /><strong>- बाबूलाल जाजू, प्रदेशाध्यक्ष, पीपुल फॉर एनिमल्स</strong><br /><br />२८ जनवरी, २००६ को लिखा गयाUnknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8032054811370849753.post-90021921688126060012008-08-27T21:35:00.003-07:002008-08-27T21:45:12.053-07:00पेयजल को प्रदूषित कर रहे हैं कॉस्मेटिक्सबाथरूम से निकला मानव अवशिष्ट पीने के पानी को बना रहा है प्रदूषित <br />रोजाना नहाने के लिए उपयोग में लाए जाने वाले साबुन और शैम्पू अब मानव स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा बनते जा रहे हैं। सीवेज के पानी के साथ इन कॉस्मेटिक्स में मिले रसायन पीने के पानी को भी प्रदूषित करने लगे हैं। इस बात का खुलासा किया गया है ब्रिटेन की रॉयल सोसायटी ऑफ केमिस्ट्री की एक ताजातरीन रिपोर्ट में।<br />रिपोर्ट में कहा गया है कि साबुन, शैम्पू और परफ्यूम आदि में मिले रसायनों का सीवेज के पानी में अनुपात तेजी से बढ़ रहा है। भारतीय शहरों के लिए यह बात निश्िचत रूप से चिंताजनक है, क्योंकि यहां पेयजल और सीवेज के पानी की लाइनें अक्सर एक साथ बिछाई जाती हैं। <br />रिपोर्ट में कहा गया है कि सीवेज के पानी का परिशोधन करने वाले संयंत्रों में इन कॉस्मेटिक्स के मिले रसायन ठीक तरह से साफ नहीं हो पाते और पेयजल में घुल जाते हैं। रिपोर्ट में ब्रिटेन के कुछ बड़े शहरों में पेयजल का परीक्षण किया गया, जिससे पता चला कि उनमें थैलेट्स की मात्रा काफी अधिक है। थैलेट्स करीब 120 रसायनों का एक समूह है, जो पुरुषों के शरीर में पहुंचकर प्रजनन तंत्र को प्रभावित करता है। इस रसायन से पशुओं को भी खासा नुकसान पहुंचता है। महिलाओं में यह रसायन स्तन कैंसर का कारण बन सकता है। <br />रॉयल सोसायटी ऑफ केमिस्ट्री के वैज्ञानिक जेफ हार्डी ने बताया कि हालांकि ब्रिटेन में लोगों को सप्लाई किए जा रहे पेयजल में इन हानिकारक तत्वों की मात्रा काफी कम है, लेकिन एशियाई देशों में इनका स्तर अधिक हो सकता है, क्योंकि वहां के जलशोधन संयंत्र पश्िचमी देशों जितने आधुनिक नहीं हैं। उन्होंने कहा कि अभी तक वैज्ञानिकों को इन तत्वों को रासायनिक रूप से अलग करने का तरीका मालूम नहीं चला है। ऐसे में इतना तो तय है कि मानव शरीर में अभी भी हानिकारक रसायनों की काफी मात्रा पहुंच रही है।<br /><br /><a href="http://merikhabar.com/fullstory.aspx?storyid=160">http://merikhabar.com</a>Unknownnoreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8032054811370849753.post-51724606399014321862008-08-27T21:35:00.002-07:002008-08-27T21:41:20.092-07:00प्रदूषित पानी पीने से आठ मरेराबर्ट्सगंज (वार्ता), <br />उत्तरप्रदेश के सोनभद्र जिले के भिढहवा गाँव में पिछले एक हफ्ते में प्रदूषित जल पीने से आठ लोगों की मौत हो गई।<br />यह खुलासा अज्ञात बीमारी से गाँव में हो रही मौतों का पता लगाने गए चिकित्सा दल द्वारा सोनभद्र के मुख्य चिकित्साधिकारी डॉ. पीके सिन्हा को सौंपी गई रिपोर्ट में किया गया है।<br />पिछले एक सप्ताह में जिला मुख्यालय में करीब 45 किमी दूर स्थित भिढहवा गाँव में अज्ञात बीमारी से लगातार हो रही मौतों से ग्रामीणों में भय व्याप्त है।<br />इस बारे में जानकारी मिलने पर डॉ. सिन्हा ने एक चिकित्सीय दल को अज्ञात बीमारी के बारे में पता लगाने के लिए गाँव भेजा जिसने शुभांगी, कुसुम, आरती, लक्ष्मी, धोधारी, राजेन्द्र, रामू व गोलू समेत आठ लोगों की मौत की पुष्टि करते हुए रिपोर्ट में कहा कि यह मौतें ग्रामीणों द्वारा प्रदूषित नाले का पानी पीने के कारण हुई।Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8032054811370849753.post-16098081119382279652008-08-27T21:35:00.001-07:002008-08-27T21:39:20.019-07:00एसटीपी से भी प्रदूषित पानी ही जा रहा है यमुना मे<strong>एसटीपी से भी प्रदूषित पानी ही जा रहा है यमुना मे</strong><br /><br />चंडीगढ़ : करोड़ों रुपये खर्च होने के बावजूद यमुना एक्शन प्लान के तहत हरियाणा के विभिन्न शहरों में लगे सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) से भी प्रदूषित पानी ही यमुना में डाला जा रहा है। <br /><br />पलवल के विधायक करण सिंह दलाल इस संबंध में मुख्यमंत्री को खत लिख रहे है और इस मुद्दे को विधानसभा में भी उठाएंगे। <br /><br />गौरतलब है कि पर्यावरण व वन मंत्रालय ने 1993 में यमुना एक्शन प्लान के तहत हरियाणा व उत्तर प्रदेश के यमुना किनारे के शहरों और दिल्ली को शामिल किया था। इसके लिए जापान से 700 करोड़ का कर्ज लिया गया था। प्राथमिक तौर पर हरियाणा के यमुनानगर, करनाल, पानीपत, सोनीपत, गुड़गांव और फरीदाबाद जिलों को इसमें शामिल किया गया था। बाद में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर छछरौली, गोहाना, घरौंडा, इंद्री, पलवल और रादौर को भी इसमें ले लिया गया। <br /><br />करण सिंह दलाल ने मंगलवार को दैनिक जागरण को विशेष भेंटवार्ता में बताया कि कई सरकारे आई और चली गईं पर सीवेज ट्रीटमेंट के नाम पर जन स्वास्थ्य विभाग घोटाला कर रहा है। सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट के नाम पर सरकारी खजाने को लूटा जा रहा है। इसके दोषी अफसरों को निलंबित करके उन्हे सजा दी जानी चाहिए।<br /><br />उन्होंने बताया कि प्रशासनिक आयोग के चेयरमैन होने के नाते जब सिंचाई विभाग से यमुना के प्रदूषण के बारे में उनसे पूछा था, तो उन्होंने कहा कि जब तक यमुना एक्शन प्लान के तहत जन स्वास्थ्य विभाग के सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट से प्रदूषित पानी यमुना में गिरता रहेगा तब तक यमुना को प्रदूषण से मुक्त नहीं किया जा सकता। <br /><br />दलाल ने कहा कि मैंने खुद जाकर देखा कि सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट से प्रदूषित पानी ही वापस यमुना में जा रहा है। ट्रीटमेंट प्लांट के नाम पर एक तालाब में पानी एकत्र किया जाता है। ओवर फ्लो होने पर जब ऊपर का कूड़ा कर्कट बाहर चला जाता है तो यही पानी नालों के जरिए वापस यमुना में डाला जा रहा है। दलाल ने कहा कि ट्रीटमेंट प्लांट आधुनिक होना चाहिए। ट्रीट किए गए पानी को तो दोबारा पिया जा सकता है। <br /><br />दलाल ने कहा कि यमुनानगर से लेकर मेवात तक बह रही यमुना के प्रदूषण का असर दिखने लगा है। न सिर्फ सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की उल्लंघना की जा रही है अपितु लोगों की सेहत से खिलवाड़ भी हो रहा है। यमुनानगर के किनारे के शहरों में खुजली, कैंसर और टीबी जैसे रोग फैल रहे है। इस प्रदूषित पानी से पशुओं में भी कई तरह के रोग फैल रहे है।Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8032054811370849753.post-36730043799997730512008-08-27T21:35:00.000-07:002008-08-27T21:37:58.738-07:00प्रदूषित पानी - प्रदूषित पेयजल<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgV2NX65_p9PZnnX5ULo_nxNrBRA89tCSxc-1bjwjWQLSa7Zz0kWgoap2oB-y4mum84x-CbD4_fCY9hH6XvmvXr9oU86WClUeQqhZpdCoRqInLrZX0ySKR1QpP357pAZ0-Qo5asw9icNrQ/s1600-h/who_fix-1_1214204416_m.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgV2NX65_p9PZnnX5ULo_nxNrBRA89tCSxc-1bjwjWQLSa7Zz0kWgoap2oB-y4mum84x-CbD4_fCY9hH6XvmvXr9oU86WClUeQqhZpdCoRqInLrZX0ySKR1QpP357pAZ0-Qo5asw9icNrQ/s400/who_fix-1_1214204416_m.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5239423126869485490" /></a><br /><strong>प्रदूषित पानी से रोजाना 4 हजार की मौत</strong><br /><br />सिंगापुर। विश्व स्वास्थ्य संगठन [डब्ल्यूएचओ] के एक अधिकारी ने चेतावनी दी है कि यदि दुनिया भर की सरकारों ने स्वच्छ जलापूर्ति पर ध्यान नहीं दिया, तो इस वर्ष प्रदूषित पेयजल की वजह से करीब 16 लाख लोग मारे जाएंगे। <br /><br />डब्ल्यूएचओ के जल, स्वच्छता एवं स्वास्थ्य कार्यक्रम के समन्वयक जेम्स बर्टरेम ने सोमवार को प्रकाशित एक रिपोर्ट के माध्यम से कहा कि रोजाना 4000 से ज्यादा लोग दूषित पेय जल की वजह से होने वाले बीमारियों की वजह से काल के ग्रास बन जाते है। <br /><br />समाचार पत्र द स्ट्रेट्स टाइम्स ने जेम्स के हवाले से प्रकाशित इस रिपोर्ट में कहा है कि यह समस्या विश्व के सभी विकसित और विकासशील देशों में है। उल्लेखनीय है कि मंगलवार से सिंगापुर में अंतरराष्ट्रीय जल सप्ताह प्रारंभ हो रहा है। <br /><br />उन्होंने कहा कि जल की बढ़ रही मांग और जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए दुनियाUnknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8032054811370849753.post-54406475010536731502008-08-25T08:58:00.006-07:002008-08-25T09:27:49.731-07:00राजसमंद झील<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh45MvbfbaS8AXNdtN9HpKeTQ5nhkdwt73zJUuwq8bltL-Qh6nWZ9Bmut9GFPczua-35Hzj62rRmL3uHxUYesIVt1a38ahauR1kVP7sRaBxpjMWjs3oNd9mcrfl5SZGSu2VCBzYT0Bako0/s1600-h/rajsamand-lake.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh45MvbfbaS8AXNdtN9HpKeTQ5nhkdwt73zJUuwq8bltL-Qh6nWZ9Bmut9GFPczua-35Hzj62rRmL3uHxUYesIVt1a38ahauR1kVP7sRaBxpjMWjs3oNd9mcrfl5SZGSu2VCBzYT0Bako0/s400/rajsamand-lake.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5238491803324773570" /></a><br />राजसमंद झील का निर्माण महाराणा राज सिंह जी के द्वारा एक बडी अकाल राहत योजना के तहत 1662 AD.में करवाया गया । काफी समय बीतने के बाद जब यह छोटा सा कस्बा जिला बना, तो इसका नाम भी राजसमंद झील के कारण राजसमंद जिला रखा गया । राजसमंद झील पर नौ चोकी स्थापत्य कला का एक बहूत ही अच्छा नमूना है, यहां मार्बल से बनी तीन छतरीयां, व तोरण बने हुए है। इन पर बहूत बारीकी से मीनाकारी का कार्य किया हुआ है ।<br /><br />ईस नौ चोकी नामक स्थान की एक खास बात यह हे कि यहां हर नौ सीढ़ीयों के बाद एक चोकी है, और इस बात का खास खयाल रखा गया था इसके पुरे निर्माणकाल के दौरान । नौ चोकी पर बने तोरण भी नौ पत्थरों के जोड से ही बने हुए है । नौ अंक का हिन्दु धर्म में एक अलग ही महत्व है । इसी नौ चोकी पाल पर 25 पत्थरों पर खुदाई करके एक बहुत बडा महाकाव्य लिखा गया था जो राज प्रशस्ति के नाम से जाना जाता है । कहा जाता है कि राजसमंद झील पर पाल का निर्माण पूरा होने में पूरे 14 वर्ष का समय लगा था । राजसमंद झील एशिया में दूसरी बडी मीठे पानी कि झील है । झील के किनारे पाल पर एक तरफ अंग्रेजों के जमाने की बनी हुई एक छोटी हवाई पट्टी भी है, तब यहां पानी पर हवाईजहाज उतरते थे ।<br />यहीं पर झील के किनारे स्थित हे प्रभू द्वारिकाधीश का पावन मंदिर, दर्शनार्थी दूर दूर से यहां प्रभू के दर्शनो के लिये आते हैं, और पवित्र झील में स्नान करते हें । राजसमंद झील विगत कुछ समय से खाली पडी थी पर अब यहाँ पानी की कमी नहीं है । झील पर नौकायान का लुत्फ लिया जा सकता है । राजसमंद झील की पाल पर ही सिंचाई विभाग का कार्यालय है, और सिंचाई विभाग का ही एक गार्डन भी है। प्रतिदिन यहां नगर के कई गणमान्य लोग प्रातःकालीन और सायंकालिन भ्रमण के लिये आते हैं। यहां पाल पर पहली छतरी राडाजी की छतरी के नाम से जानी जाती है, आगे ऐसी ही तीन और छतरीयां है और अंत में आती है चौथी छतरी, कमल कुरज की छतरी । यहां की सांय सांय करती हवा और दूर दूर तक झील के मनोरम नजारे मन को सुकून देते हैं । यहाँ सुर्योदय और सुर्यास्त के समय आकाश में छाई लालिमा को बैठे बैठे निहारना बहूत आनंददायी होता है ।Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8032054811370849753.post-1051558812844463192008-08-25T08:58:00.005-07:002008-08-25T09:16:56.345-07:00आयड़ नदी की लम्बाई दर्शाने पौने ३ लाख खर्च होंगे<strong>३०-३० मीटर की दूरी पर लगेंगे आर डी स्टोन</strong><br />उदयपुर, ७ अप्रेल (नसं) । आयड़ नदी विकास योजना के प्रथम चरण के तहत किये जाने वाले कार्यों की श्रेणी में नदी की लम्बाई दर्शाने करीब पौने तीन लाख रूपये खर्च किए जाएंगे।<br />इस योजना के तहत सिंचाई विभाग ने नदी के सीमांकन का भौतिक सत्यापन का काम शुरू करने के साथ ही नदी की लम्बाई दर्शाने माईल स्टोन की तर्ज पर नदी के सहारे आर डी स्टोन लगाने की योजना तैयार की है। सिंचाई विभाग चिकलवास फिडर के यहां से उदयसागर में जहां नदी मिलती है वहां तक ३०-३० मीटर की दूरी पर आरडी स्टोन लगाएगा।<br />विभाग के अधिशाषी अभियंता विमल चोरड़िया ने इस कार्य के लिए २ लाख ७२ हजार का एस्टीमेट बनाकर राशि मंजूरी हेतू नगर विकास प्रन्यास को भेजा है।<br />करीब २४ किलो मीटर लम्बी आयड़ नदी के विकास की योजना को लेकर सिंचाई विभाग ने नगर परिषद द्वारा पूर्व में करवाए गए नदी के कंटूर सर्वे का अध्ययन भी शुरू कर दिया है।<br />उल्लैखनीय है कि आयड़ नदी विकास योजना को मूर्तरूप देने नगर परिषद ने जहां अपने वार्षिक बजट में २ करोड़ का प्रावधान कर दिया है वहीं नगर विकास प्रन्यास ने अपने वार्षिक बजट में इस कार्य के लिए फिलहाल ४ करोड़ की राशि तय कर दी है, प्रन्यास का बजट आगामी ११ अप्रेल को पेश होगा। <br />जानकारी अनुसार दोनों ही एजेंसियां जरूरत पड़ने पर इस राशि में बढ़ोत्तरी करने भी तैयार रहने का मानस भी बना चुकी है।<br />पिछोला की बाउण्ड्रीवाल का काम शुरू : पिछोला झील पेटे में हो रहे अतिक्रमण को रोकने सिंचाई विभाग ने अपनी कवायद शुरू कर दी है। इसके तहत विभाग ने फिलहाल एकलव्य कॉलोनी छौर पर झील किनारें बाउण्ड्रीवाल बनाने का काम आरम्भ करवाया है। बाउण्ड्रीवाल बनाने का खर्चा नगर विकास प्रन्यास वहन कर रहा है।Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8032054811370849753.post-35561436575035992522008-08-25T08:58:00.004-07:002008-08-25T09:12:15.418-07:00कागजों में ही दबी आयड़ की पहलभास्कर न्यूज<br />उदयपुर. राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना की बैठक लेकर नगर परिषद और यूआईटी की बैठकों में आयड़ नदी के संरक्षण व सौंदर्यीकरण की योजना केवल कागजों तक सीमित रह गई है। ठीक एक वर्ष पूर्व नगर परिषद द्वारा आयड़ नदी के सौन्दर्यीकरण को लेकर हुई बैठक में संबंधित विभागों के अधिकारियों ने जोर-शोर से खूब बातें की, लेकिन अब तक इस दिशा में कोई ठोस क्रियान्विति नहीं हो पाई। <br /><br />आयड़ नदी को लेकर स्थानीय पर्यावरणविदों सहित झील संरक्षण समिति द्वारा बार-बार सरकार और प्रशासन का ध्यान आकृष्ट किया पर योजना कागजों में ही चलती रही। पिछले माह यूआईटी में हुई बैठक से फिर आयड़ नदी के सौन्दर्यीकरण की उम्मीद बंधी पर अब तक कोई ठोस जमीनी हलचल नहीं दिखाई दी। <br /><br /><strong>आयड़ नदी के भू-जल स्तर में गिरावट </strong><br /><br />भू-जल स्तर के मापदंड़ों के अनुसार आयड़ नदी का जलग्रहण क्षेत्र अतिदोहित की श्रेणी में आता है। जलस्तर की गिरावट खतरे के स्तर तक जा चुकी है। <br /><br /><strong>नदी का टोपोग्राफिकल व हाइड्रोजिकल सर्वे जरूरी </strong><br /><br />विशेषज्ञों कर राय में आयड़ नदी का भू-स्थलीय (टोपोग्राफिकल) तथा हाइड्रोलोजिकल सर्वे जरूरी है। आयड़ नदी के विकास में उदयसागर का संरक्षण जरूरी है। आयड़ नदी के लिए बनास बेसिन नदी के ऊपरी बेड़च बेसिन की पर्यावरण गुणवत्ता का सूचक उदयसागर झील है।<br /><br />कब -कब हुई आयड़ नदी के विकास की बात<br /><br /><strong>राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना की बैठक</strong><br /><br />12 जनवरी 2004 को दिल्ली के पर्यावरण भवन में राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना की बैठक में राज्य सरकार से बनास नदी के उदयपुर से चित्तौड़गढ़ तक के प्रदूषण वाले हिस्सों का सुधार करने के लिए आग्रह किया गया, लेकिन राज्य सरकार ने इस दिशा में रुचि नहीं दिखाई। इस बैठक में राज्य सरकार की ओर से पर्यावरण विभाग की तत्कालीन प्रमुख शासन सचिव कुशालसिंह ने भाग लिया। <br /><br /><strong>2004 से प्रयासरत झील संरक्षण समिति : </strong><br /><br />झील संरक्षण समिति वर्ष 2004 से ही राज्य सरकार से यह आग्रह कर रही है कि आयड़ नदी की योजना को राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना में शामिल कर इसको प्रदूषण मुक्त कराया जाए। <br /><br /><strong>22 मार्च 2007 को झील संरक्षण समिति ने तैयार की योजना </strong><br /><br />आयड़ नदी विकास की योजना को लेकर झील संरक्षण समिति ने 22 मार्च को बैठक में योजना तैयार की। योजना के तहत निम्न चरण को प्रस्ताव में शामिल किया गया : द्य 1947 के दस्तावेजों के आधार पर बेदला एनीकट से सूखा नाका तक आयड़ नदी का सीमांकन किया जाए। <br /><br />नदी तट से दोनों ओर 50 मीटर की भू-पट्टीका को हरित क्षेत्र घोषित किया जाए तथा इसमें वृक्षारोपण किया जाए। द्य नदी के अंदर 12 से 15 स्थानों पर दो से ढाई फीट की दीवारें बना दी जाए। इन दीवारों के पीछे एकत्र होने वाले गंदे पानी में विशेष प्रकार की जलीय वनस्पति, एल्गी छोड़कर पानी का जैविक उपचार किया जाए। <br /><br />औद्योगिक इकाइयों को पाबंद किया जाए कि उनके दूषित जल को उपचारित कर ही प्रवाहित किया जाए। द्य नदी जल ग्रहण क्षेत्र में स्थित मार्बल स्लरी डंपिंग यार्ड को हटाया जाए। द्य आयड़ वाटरशेड उपचार योजना जो प्रशासन के पास पड़ा है उसकी क्रियान्विति हो। द्य आयड़ नदी के सौन्दर्यीकरण के लिए विस्तृत प्रस्ताव बनाकर केंद्र सरकार की नदी संरक्षण योजना में भेजा जाए। द्य नदी को वेनिस का दर्जा देना है तो नदी के जलग्रहण क्षेत्र में सुधार की ओर ध्यान दिया जाए। <br /><br /><strong>दस-बारह वर्ष पूर्व भी बनी योजना </strong><br /><br />आयड़ नदी के विकास और संरक्षण के लिए जिला प्रशासन के डीआरडीए के पास आयड़ नदी वाटरशेड प्रोजेक्ट बनाया गया लेकिन इस पर भी क्रियान्विति नहीं हुई। <br /><br /><strong>अब तक तैयार नहीं हुआ खाका </strong><br /><br />टाउन प्लानर को आयड़ नदी का खाका तैयार करने की बात पूर्व बैठकों में की गई, लेकिन इस दिशा में भी प्रगति नहीं के बराबर है। <br /><br /><strong>बीते माह हुई बैठक भी कागज में</strong><br /><br />आयड़ नदी के सौन्दर्यीकरण के लिए फरवरी-2008 को यूआईटी में बैठक हुई जिसमें भी बड़ी-बड़ी बातें होकर रह गई।Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8032054811370849753.post-22119287153454297962008-08-25T08:58:00.003-07:002008-08-25T09:06:15.979-07:00अम्लवर्षावर्षा, यह प्राकॄतिक रूप से ही अम्लीय होती है. इसका कारण यह है कि CO2 (कार्बन डाय ऑक्साईड) जो पॄथ्वी के वायुमंडल में प्राकृतिक रूप में विद्यमान है जो जल के साथ क्रिया करके कार्बोनिक एसिड बनाता है।<br /><br />अम्लवर्षा में अम्ल दो प्रकार के वायु प्रदूषणों से आते हैं। So2 & Nox , ये प्रदूषक प्रारंभिक रुप से कारखानों की चिमनियों, बसों व स्वचालित वाहनों के जलाने से उत्सर्जित होकर वायुमंडल में मिल जाते है।<br /><br /><strong>अम्लवर्षा के दुष्परिणाम:</strong> अम्लवर्षा के कारण जलीय प्राणियों की मृत्यृ खेंतो और पेड़-पौधों की वृद्धि में गिरावट,तांबा और सीसा जैसे घातक तत्वों का पानी में मिल जाना, ये सभी दुष्परिणाम देखे जा सकते है। जर्मनी व पश्चिम यूरोप में जंगलो का नष्ट होने का कारण अम्लवर्षा है।<br /><br /><strong>समस्या का समाधान:</strong> इस समस्या का समाधान एक ही प्रकार से संभव है। इसके लिये घातक वायु और पदार्थ के स्त्रोत जहाँ से ये प्रदूषक उत्पन्न हो रहे है, उनकों वहीं पर नियंत्रित करना, और वे सभी व्यक्ति और संस्थाएं जो इस विषय पर कार्यरत है उन्हें सारी जानकरी देना।Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8032054811370849753.post-70461027913586910632008-08-25T08:58:00.002-07:002008-08-25T09:05:01.387-07:00पृथ्वी पर प्रदूषण<strong> साक्षातकार</strong><br /><br />डॉ. गुफरान बेग़ को अंतरराष्ट्रीय विज्ञान संस्था की तरफ से Norbert-Gerbier-Mumm (NGM) नामक पुरस्कार से सन्मानित किया गया है। ये पुरस्कार पृथ्वी पर प्रदूषण से संबंधीत नये संशोधन के लिए दिया गया है। इस संशोधन पर विस्तार से जानकारी के लिये ये साक्षातकार आयोजित किया गया है। <br /><br /><strong>प्रश्न १. प्रदूषण का क्या अर्थ है। भारत मे मुख्यतया किस प्रकार का प्रदूषण पाया जाता है?</strong><br /><br />ऊत्तर: प्रदूषण के मुख्यत: ३-४ प्रकार होते है:<br /><br /> १) वायु प्रदूषण<br /><br /> २) जल प्रदूषण<br /><br /> ३) मृदा प्रदूषण<br /><br /> ४) ध्वनि प्रदूषण<br /><br /> उदाहरण के लिए: मृदा प्रदूषण जल प्रदूषण का मुख्य कारण बङे - बङे कारखानों में से निकलने वाला गंदा पानी, घरों में उपयोग होने के बाद , नालों में से बहकर जाने वाला पानी नदियों में मिल जाता है, जिसके कारण नदी का पानी प्रदूषित होता है। ऐसे प्रदूषित जल को यदि सब्जियों और फलों की सिंचाई के लिए प्रयोग में लाया जाए तो ये मनुष्य के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकता है।<br /><br /> वायु प्रदूषण आज एक बहुत ही चिंताजनक स्थिति में पहुँच गया है। पूना में भी यह बहुत अधिक चिंताजनक हालत में है। हमारी संस्था (IITM) में हम वायु प्रदूषण से संबंधित सभी विषयों पर अध्ययन करते है और प्रवीणता प्राप्त की है। वायु प्रदूषण का प्रमुख कारण वाहनों की बढती हुई संख्या है, और उससे निकलने वाली प्रदूषित हवा है। कारखानों में उपयोग में लाया जाने वाला कोयला और अनेक दूसरे ईंधन, कृषि अवशेष और गावों में पारंपरिक तौर पर उपयोग में लाया जाने वाला ईंधन जिसमें लकङी और गोबर का जलना, ये सारे वायु में नाईट्रोजन ऑक्साईड, कार्बन मोनोक्साईड और ओज़ोन तथा सूक्ष्म कण की मात्रा को बढाते है, और वायु प्रदूषित करते हैं।<br /><br /><strong>प्रश्न २. इन सभी प्रदूषणों का क्या परिणाम हो सकता है।</strong><br /><br /><strong>ऊत्तर: इस वायु प्रदूषण के कारण मनुष्य ही नहीं बल्कि पेङ-पौधों पर भी घातक परिणाम होते है।</strong><br /><br />मैंने जो वायु प्रदूषक बताए हैं, उनमे से सबसे अधिक घातक ज़मीनी ओज़ोन है। ओज़ोन की रासायनिक प्रक्रिया के कारण आँखों में जलन, फेफङों में तकलीफ़ और कर्क रोग जैसी घातक बीमारियाँ हो सकती है ।<br /><br />ओज़ोन की मात्रा यदि वायु में अधिक हो जाए तो कृषि उत्पादन में कमी पाई गई है। भारत वर्ष में अभी तक ओज़ोन का मापदंड प्रदूषण विभाग द्वारा नहीं आंका गया है परन्तु हमने इसका आंकलन किया है। जब ओज़ोन की मात्रा ८३ पीपीबीवि ( 83ppbv ) की सीमा रेखा से अधिक हो जाए तब ये मनुष्य के स्वास्थ के लिऎ घातक सिद्ध होती है। और यदि ४० पीपीबीवि (40ppbv) से अधिक हो जाए तो कृषि के लिए अच्छी नहीं है और पैदावार कम हो सकती है।<br /><br /><strong>प्रश्न ३. प्रदूषण मापन (अंदाज ) किस प्रकार से कर सकते हैं?</strong><br /><br />ऊत्तर: प्रदूषण मापन दो प्रकार से संभव है।<br /><br /> १) पहला-आधुनिक प्रदूषण मापी उपकरणों द्वारा। परन्तु इसके लिए अलग अलग स्थानों पर उपकरण लगाने होंगे, क्योंकि प्रदूषण वातावरण में हमारे द्वारा use sources जैसे वाहनों की सँख्या, Traffic Density, जनसँख्या पर निर्भर करता है जो कि थोङी थोङी दुरी पर बदलते रहते हैं। ये विधी में नेटवर्क करना आसान नहीं है और वित्ती भार भी अधिक है।<br /><br />२) दुसरा प्रकार- इस विधी से आज के वातावरण के साथ साथ भविष्य मे वायु प्रदूषण का अंदाज लगाना भी संभव हो सकता है।<br /><br /><strong>प्रश्न ४. आपके द्वारा प्रदूषण संशोधन और भविष्य में इसके अनुमान के बारे में आपने क्या प्रगति की है हमें बतायें। मुख्यतौर पर पूना में हमारी जनता कब और कैसे प्रदूषण का अंदाज ले पाएगी?</strong><br />ऊत्तर: वातावरण के प्रदूषण से सभी विषयों पर हमारी संस्था IITM में शोध कार्य निरंतर प्रगति पर है। हमारे पास दोनो ऊपर बताये विधी यानी उपकरण और मांडलिग द्वारा शोध हो रही है। पूना के पाषाण भाग में घातक ओज़ोन की मात्रा पिछले २ वर्षो में हर वर्ष ४०-५० घातक माप ८३ पीपीबीवि को पार करी हैं। ये चिंताजनक है। यह घातक level मुख्य Traffic Junctions जैसे स्वारगेट, विद्यापीठ सर्कल, नल स्टॉप, चाँदनी चौक, हङपसर आदि स्थानो पर और भी अधिक हो सकता है। सुक्ष्म कणों की मात्रा और नाईट्रोजन के घटक दुपहिया पुराने वाहनों के कारण बढ रहे हैं।<br /><br />हमने एक Project भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, दिल्ली के साथ प्रारम्भ किया है जिसमें प्रदूषण का प्रभाव रवी और खरीफ फसल पर देखना है। इस अध्ययन के अनुसार ये आंका गया है कि यदि ओज़ोन स्तर 60ppbv होता है चावल व गेंहू के उत्पादन में १-९% की कमी हो सकती है। २००१ वर्षा औसत से कम हुई थी इस कारण ओज़ोन और कार्बन मोनोक्साईड की मात्रा इस वर्ष बढ गई थी जिसका असर ये देखा गया कि कृषि उत्पादन ८% से २००२ में कम हुआ। ये निष्कर्ष IARI के CropModel से मिला है।<br /><br /><strong>प्रश्न ५. आप हमें भविष्य में प्रदूषार्ण के अंदाज में आपके द्वारा प्रगति के विषय में बताएँ!</strong><br /><br />ऊत्तर:.हा ! हम इस दिशा में गहन अध्ययन कर रहे हैं। हमने REMO नाम का एक क्षेत्रीय रास. वहन मॉडल तैयार किया है। संगणक के द्वारा इस मॉडल से आज का प्रदूषण और पीछे के स्तरों के बारे में सूचना मिल सकती है। इसमें हवामान के सभी घटक तापमान, हवा का दबाव, आर्द्रता, हवा की गति और दिशा के साथ-साथ प्रदूषण Emissions Inventery जैसे घटक मॉडल में Input दिये जाते है। इनके बारे मे जानकारी भविष्य के अंदाज में निश्चित रुप से अनिश्चित्ता हो तो प्रदूषर्ण अंदाज में भी अनिश्चित्ता आती है।<br /><br /><strong>प्रश्न ६. भारत के शहरों और गावों के प्रदूषण में क्या अन्तर हैं?</strong><br /><br />ऊत्तर:. शहर में प्रदूषण मुख्यतः वाहनों के आगमन के कारण होता है। वाहन अगर सही हो और उचित तौर पर उपयोग किया जाए तो प्रदूषण के जटिलता कम है । लेकिन हमारे देश में बिना ट्यून किए वाहन, चौराहों पर लाल बत्ती पर २-३ मिनट तक ठहरे मगर धुँआ उङाते वाहन, आदि एक मुख्य प्रदूषण समस्या है। सर्दी में टायरों का जलाना गंभीर समस्या बनता जा रहा है जो काले कार्बन की बढती मात्रा का स्त्रोत है।<br /><br /> गावों में खाना अभी भी मुख्यतः लकङी/चूल्हे के उपयोग से बनता है या कोयले की सगङी इस्तेमाल की जाती है। गोबर से बने कंडे उपयोग में लाए जाते हैं। इन सबसे प्रदूषित गैसे मुख्यतः CO अधिक मात्रा में निकलती है।क्योंकि भारत की ७०% जनता अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती हैं। ये गाँवों की अधजली लकङी और गोबर की समस्या अति गंभीर होती जा रही है।<br /><br /><strong>प्रश्न ७. प्रदूषण के बारे में लोगों में हम जागरुकता कैसे पैदा कर सकते है। आपकी प्रदूषण पर इस बारे में क्या सुझाव हैं।</strong><br /><br />ऊत्तर:. मेरे इस बारे में ४-५ सुझाव या Recommendation हैं।<br /><br /> प्रदूषण की समस्या आकङों में बताकर जनसाधारण को अलग अलग मंचो का उपयोग करके जागरुक करें। अपनी संस्था IITM,Pune में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ( भारत सरकार का उपक्रम ) के अधीन एक कार्यक्रम ENVIS & SDNP Climate-Change चलाया गया है। इसके अधीन एक वेब साईट envis.tropmet.res.in बहुत ही साधारण भाषा में बनाई गयी हैं जो इस बारे में जानकारी विस्तृत तौर पर देती है। Kids Corner के नाम से एक Link इसमें दिया गया है जो चलचित्र द्वारा Animation से प्रदूषण की जानकारी देता हैं।Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8032054811370849753.post-59918953723419082002008-08-25T08:58:00.001-07:002008-08-25T09:01:18.153-07:00आवाज बताएगी प्रदूषण का स्तरतेल अवीव : अब पौधे बताएंगे पानी में कितना प्रदूषण है। जल्द ही पौधों की आवाज को सुनकर यह जाना जा सकेगा कि जिस पानी में पौधे पनप रहे हैं वहां कितनी गंदगी है। <br /><br />इस्राइली वैज्ञानिकों ने इस बारे में पौधों की आवाज सुन पाने की एक नई तकनीक विकसित की है। इसके तहत पानी में तैरने वाले शैवालों के उपर लेजर किरणें डाली जाती हैं जिससे एक अजीब तरह की तंरगें निकलती हैं जो पानी में प्रदूषण की मात्रा को बताती हैं। <br /><br />इस्राइल के बार इलान विश्वविद्यालय के जल जैव प्रौद्योगिकी के विशेषज्ञ जुवी दुबीनस्की ने कहा कि लेजर किरणें पड़ते ही इन शैवालों में से एक खास तरह की तरंगे निकलने लगती हैं इनसे जल प्रदूषण का पता लग जाता है। दुबीनस्की के मुताबिक शैवाल जल प्रदूषण के प्रति सबसे संवदेनशील होते हैं।Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8032054811370849753.post-18014873195643217462008-08-25T08:58:00.000-07:002008-08-25T08:59:37.451-07:00उदयसागर के प्रदूषित पानी से मरीं मछलियांभास्कर न्यूज<br />उदयपुर. प्रदूषित पानी से उदयसागर झील में अब मछलियां और अन्य जलचर प्राणी मर रहे हैं। झील किनारे कई जगह मछलियां मरी हुई पड़ी हैं। मत्स्य विभाग भी इससे बेखबर है। इससे पहले पीछोला व फतहसागर का जलस्तर कम होने व तापमान बढ़ने से मछलियां मरी थी।<br /><br />उदयसागर किनारे मरी हुई मछलियों का आकार मध्यम से बड़ा है। चारों ओर किनारे पर जगह-जगह मछलियां मरी हुई दिखाई दी हैं। कई बार तो लोग इन मछलियों को उठाकर ले जाते हैं, लेकिन कुछ क्षेत्रों में मरी हुई मछलियों की बदबू फैल रही है। इसकी बड़ी वजह झील में पानी का प्रदूषित होना है। पिछले दो-तीन सालों से लगातार जल स्तर घटने पर झीलों में मछलियों के मरने की घटनाएं सामने आई हैं। <br /><br />कुछ दिन पहले भी पीछोला में मछलियां मर गई थीं। शहर का इंडस्ट्रीयल वेस्ट जाने से उदयसागर रासायनिक तौर पर सर्वाधिक प्रदूषित झील बन चुकी है। ऐसे में जलचरों के जीवन पर संकट आना स्वाभाविक है। इधर, मछलियों के मरने की घटना की जानकारी मत्स्य विभाग को नहीं मिली है। <br /><br />उपनिदेशक, फिशरीज डिपार्टमेंट इस्माईल अली दुर्गा ने बताया कि उदयसागर में मछलियों की मौत के बारे में कोई रिपोर्ट विभाग को नहीं मिली है। पानी व मृत मछलियों के सेंपल लिए जाएंगे जिसके बाद ही मौत के कारणों का खुलासा करना संभव होगा। दुर्गा ने बताया कि मौसम में परिवर्तन होने से कई बार पानी में ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है, जिससे मछलियां व अन्य जल जीव मरने लगते हैं। <br /><br /><strong>रिपोर्ट </strong>: केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल की रिपोर्ट के अनुसार उदयपुर की झीलों में प्रति 100 मिलीलीटर कुल जीवाणु की संख्या (एमपीएन) 4200 से 7600 है जबकि नहाने योग्य पानी में यह 500 से कम होने चाहिए। उदयसागर झील में जीवाणुओं की संख्या 2 हजार से 6200 एमपीएन है। इसी तरह बड़ी तालाब, फतहसागर, स्वरूपसागर, पीछोला, आयड़ नदी की तुलना में उदयसागर पानी की हार्डनेस और क्षारीयता के मामले में दूसरे नंबर पर है। <br /><strong><br />जोखिम के स्तर को पार कर चुका प्रदूषण</strong><br />पर्यावरणविद् अनिल मेहता के अनुसार झीलों में जमा प्रदूषक तत्व व निरंतर गिरते रहे गंदे नालों व ठोस कचरे के कारण पानी की गुणवत्ता निरंतर गिरती जा रही है। झीलों में हानिकारक जीवाणुओं की संख्या भी बहुत अधिक तादाद में है जो जलचरों के अस्तित्व पर बड़ी चुनौती साबित हो रही है।Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8032054811370849753.post-60514999145214562432008-08-21T08:47:00.000-07:002008-08-21T08:49:48.259-07:00पानी का निजीकरण और सरकारी रवैया<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg_NUtolz0GWqbnt4ED0F-u4G49crHsZCAceEwnmSNmujZ0DWp06UaGJQDuB7a5Y_uhPldrrIJL2-cIfSgDsIdn8ZD1f0q-9y69c8Ty3AUWVg99NqFK8THLMLwKjETbiHPz00a9DsRx2lw/s1600-h/water+privatisation.bmp"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg_NUtolz0GWqbnt4ED0F-u4G49crHsZCAceEwnmSNmujZ0DWp06UaGJQDuB7a5Y_uhPldrrIJL2-cIfSgDsIdn8ZD1f0q-9y69c8Ty3AUWVg99NqFK8THLMLwKjETbiHPz00a9DsRx2lw/s400/water+privatisation.bmp" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5236998532253419394" /></a><br />संदीप पांडे<br /><br />जल जैसे प्राकृतिक संसाधन, जो पूरे समाज के उपयोग के लिए उपलब्ध हैं तथा जिन पर समाज का सामूहिक स्वामित्व है, के प्रति सरकारों के नजरिए में परिवर्तन आ गया है। अब इसको एक ऐसे संसाधन के रूप में देखा जाने लगा है जिसका व्यावसायिक मुनाफे के लिए दोहन किया जा सकता है। यह अलग बात है कि इस प्रक्रिया में क्षेत्रीय भू-गर्भ जल स्तर में न सिर्फ गिरावट आ रही है, बल्कि उसके जहरीले होने के मामले भी सामने आ रहे हैं। <br /><br />पिछले वर्ष अक्टूबर माह में उत्तरप्रदेश के बलिया जिले में स्थित कोकाकोला बॉटलिंग संयंत्र के बाहर स्थानीय ग्रामीणों ने धरना दिया हुआ था। वे जानना चाहते थे कि यह कारखाना अपने खतरनाक कचरे का निपटारा कैसे करता है? <br /><br />ज्ञात हो कि 2005 में केरल प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने पलक्कड़ जिले में स्थित प्लाचीमाडा गांव के कोकाकोला बॉटलिंग संयंत्र को बंद करने का आदेश दिया था क्योंकि इस कारखाने से निकलने वाले कचरे में कैडमियम, क्रोमियम व लैड जैसे तत्व पाए गए थे जिनसे भू गर्भ जल के जहरीले होने का खतरा था। <br /><br />ऐसे में बलिया के किसानों के लिए यह जानना जरूरी था कि उनके गांव में स्थित कोकाकोला संयंत्र कहीं रासायनिक कचरा भूगर्भ में तो नहीं दफना रही है? वहां ग्रामीणों को पुलिस अधीक्षक के स्तर पर निरीक्षण की अनुमति तो दी गई, लेकिन ऊपरी दबाव के आगे फिर रद्द कर दी गई। <br /><br />कोकाकोला व पेप्सी कंपनियों के भारत में 90 के ऊपर बॉटलिंग संयंत्र हैं, जो प्रत्येक जगह से रोजाना 15 से 20 लाख लीटर पानी का दोहन करते हैं। इन कंपनियों द्वारा एक लीटर शीतल पेय बनाने के लिए छह से दस लीटर पानी का इस्तेमाल किया जाता है। <br /><br />लगातार इतने पानी के दोहन की वजह से उन इलाकों में जहां ये बॉटलिंग संयंत्र स्थित हैं, भूगर्भ जल स्तर में तेजी से गिरावट आई है। प्लाचीमाडा में तो संयंत्र के आसपास के गांवों में कोकाकोला टैंकरों से पीने के पानी की आपूर्ति करती है। भूगर्भ जल पीने, नहाने, खाना बनाने अथवा कपड़े धोने लायक भी नहीं रह गया है। <br /><br />मेहदीगंज, वाराणसी स्थित कोकाकोला बॉटलिंग संयंत्र से तीन किमी के दायरे में स्थित प्रत्येक जलस्रोत का सर्वेक्षण करने पर यह मालूम हुआ कि 1996-2006 के दौरान भूगर्भ जलस्तर में 18 फीट की गिरावट आई है जबकि 1986-96 के दौरान यह गिरावट मात्र 1.6 फीट थी। कुओं व तालाबों के सूख जाने पर बड़ी संख्या में हैंडपंप लगाए गए हैं। <br /><br />1996 में यहां सिर्फ 45 हैंडपंप थे, जबकि 2006 में इनकी संख्या बढ़कर 220 तक पहुंच गई। स्पष्ट है कि जल की उपलब्धता का संकट दिनोंदिन गहराता जा रहा है। दर्जन भर गांवों में राजकीय व निजी नलकूपों से पानी निकलना बंद हो चुका है तथा एक चौथाई हैंडपंप भी जवाब दे चुके हैं। <br /><br />ऐसा प्रस्ताव था कि बिना अनुमति के इस इलाके में हैंडपंप या नलकूप लगाने पर रोक लगाई जाए। कृषि या पेयजल की जरूरत को पूरा करने के लिए तो ऐसी अनुमति देने पर विचार किया जा सकता है, किंतु कोकाकोला कंपनी द्वारा व्यावसायिक उद्देश्य से जल दोहन पर तुरंत रोक लगनी चाहिए। <br /><br />यही नहीं पीपुल्स साइंस इंस्टीट्यूट, देहरादून द्वारा मेहदीगंज, वाराणसी स्थित कोकाकोला बॉटलिंग संयंत्र के आसपास के भूगर्भ जल, सतही जल व मिट्टी के नमूनों की जांच करने पर यह पाया गया कि जल के ज्यादातर नमूनों में कैडमियम व क्रोमियम आपत्तिजनक मात्रा में विद्यमान हैं। <br /><br />ऐसी आशंका है कि कोकाकोला अपना विषैला कचरा भूगर्भ जल में ही दफना रहा है जिसकी वजह से आसपास के ग्रामीणों के लिए पेयजल के विषाक्त होने का खतरा उत्पन्न हो गया है। मिट्टी में भी लैड, कैडमियम व क्रोमियम पाए गए। <br /><br />जल के निजीकरण का सबसे हास्यास्पद किंतु गंभीर मामला रायपुर से है जहां मध्यप्रदेश औद्योगिक केंद्र विकास निगम लिमिटेड ने एक स्थानीय निजी कंपनी रेडियस वॉटर लिमिटेड को 20 वर्षो की अवधि के लिए व्यावसायिक मुनाफा कमाने के उद्देश्य से राज्य का एक प्रमुख जलस्रोत व नैसर्गिक साधन शिवनाथ नदी पूर्णरूपेण हस्तांतरित कर दिया। <br /><br />राज्य शासन की अनुमति के बिना रुपए 500 लाख से अधिक की जल प्रदाय योजना की परिसंपत्तियां निजी कंपनी को लीज पर मात्र एक रुपए के प्रतीकात्मक मूल्य पर सौंप दी गई थीं यानी प्रकृति से निशुल्क जल प्राप्त कर उसे बोतल में बंद कर बेच देना अब एक वैध व्यावसायिक गतिविधि है। <br /><br />कोकाकोला व पेप्सी खुद किनले व एक्वीफिना नाम से बोतलबंद पानी का व्यापार करती हैं। इसलिए इनके कारखानों के खिलाफ तमाम शिकायतें होते हुए भी इन कंपनियों के खिलाफ कोई कार्रवाई करवाना बहुत मुश्किल हो गया है। <br /><br />इन देशी-विदेशी निजी कंपनियों ने हमारी शासन-प्रशासन व्यवस्था में जबदस्त घुसपैठ की है तथा हमारे राजनेताओं व अधिकारियों की सोच बदली है, यह प्रक्रिया अत्यंत खतरनाक है। एक प्राकृतिक संसाधन व आम जनता का उस पर पारंपरिक अधिकार कुछ मुनाफा कमाने की सोच से प्रेरित निहित स्वार्थ वाला वर्ग छीनना चाहता है। यदि जनता जागरूक न रही तो उसके जीवन का एक प्रमुख आधार देखते ही देखते उसके हाथों से निकल जाएगा।<br /><br />लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं।Unknownnoreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8032054811370849753.post-89274773759013173072008-08-19T05:27:00.001-07:002008-08-19T05:29:53.634-07:00ज़रा सुनो तो, क्या कहती है ये यमुना!<strong>बड़े दिनों बाद बेपरवाह बह रही है ये,<br /><br />के है मुश्किल थामना पानी को ज़ंजीरों में है। </strong><br /><br /><br />पिछले दिनों बड़े दिन बाद मुझे मौका मिला यमुना किनारा देखने का और दिल बाग़-बाग़ हो गया।पानी अजी पानी का क्या,लहरें यूँ उठ रही थी मानो आज इनका इरादा रुकने का नही है। रास्ते में आने वाले झाड़ , टूटे हुए पेड़, कूड़ा कुछ भी ऐसा नही था जो कि इसको रोक सके। हवा ऐसी कि जैसी पिछले ६-7 सालों में शायद ही चली हो।और नदी ऐसे बेपरवाह के जैसे उसे किसीसे कोई मतलब ही न हो, मानो कह रही हो "बहुत मौका दिया तुम्हे के तुम मुझे साफ़ करो. तुम तो इतने सालों में कामयाब नही हुए मगर मैंने इस बार कमर कस ली है के इस बारिश के मौसम में सारा कूड़ा और करकट, सारा गंद मुझे ही बहा के ले जाना है।" सच में मुझे ऐसे लगा कि जैसे यमुना पे बहार आई हो। <br /><br />हालांकि कुछ लोगों को हो सकता है मेरा ऐसा कहना बुरा लगे कि "एक तो यमुना का जल स्तर बढ़ रहा है और ख़तरा भी मगर इस बन्दे को क्या पसंद आया इसका।" तो जनाब वैसे मेरा यमुना के साथ पुराना रिश्ता है। अगर में ये कहता हूँ कि बड़े दिन बाद किनारे पर गया तो इसमें मुझे अफ़सोस भी होता है, मगर वहां जाना मैंने उस बदबू के कारण छोड़ा जो कभी आपको नाक से कपड़ा हटाने नही देती। मैं लक्ष्मी नगर में रहता हूँ और इस इलाके को जानने वालों को पता होगा कि ये यमुना के किनारे ही बसा हुआ है। कभी अपना बचपन, अपनी उदासी के लम्हे, और अपनी पढाई के दिन सब वही हुआ करते थे। जब दिल करता कि यार बैचैनी हो रही है तब साइकिल लेकर या पैदल ही उस ओर चल पड़ते। सुबह को घूमने जाना हो या शाम को दोस्तों के साथ वक्त गुजारना हो, गर्मियों की छुट्टियां तो मानों वही ख़त्म होती थी। उसी इलाके के आसपास के खेतों ओर किनारे पर जमें पेड़ों से पत्ते तोड़कर अपनी प्रयोग की पुस्तक को सजाया जाता था। जब पता चला कि उदासी नाम की भी कोई चीज़ होती है तो भी वही जा बैठते थे। इसके बाद इम्तिहान की तैयारी, सब इकठ्ठा हुए और चल दिया यमुना के तीर।मुझे आज भी याद है हम कक्षा १० कि तैयारी कर रहे थे। फरवरी के माह में शाम को किनारे बैठे - बैठे ऐसी सर्द हवाएं चलने लगी कि मानो आज ये बैठने ही नही देंगी और हमने अपनी साइकिल उठा के वापस लौटना ही बेहतर समझा। <br /><br />फिर वो वक्त भी आया के जब यमुना के किनारे बैठना तो दूर, खड़े होना भी मुहाल होने लगा। ये ऐसा वक्त था जब बड़े ज़ोर शोर से यमुना बचाओ और यमुना सफाई अभियान चल रहे थे। हम ये सोचकर हैरान थे कि हो क्या रहा है। बजाये साफ़ होने के ये यमुना गन्दी क्यूँ होने लगी है। मगर कोई जवाब नही। और फिर धीरे यमुना का हाल ज़माने ने देखा और सब इस यमुना को गंदे नाले के नाम से जानने लगे। जब भी कोई इसे गन्दा नाला कहता मुझे बड़ा अफ़सोस होता था। मगर सच्चाई से मुँह फेरना काम नही देता। अपना भी मन हुआ कि किसी ऐसी संस्था से जुडा जाए जो इसे साफ़ करने का इरादा रखते हैं। कुछ संस्थाओं का पता भी चला मगर अधिकतर का इरादा सफाई से शोर ज़्यादा मचाने में था। हर कोई बस यही चाहता है कि सरकार कुछ करे और बाकी लोग बस नुक्ताचीनी करते रहे। ख़ुद का इरादा बस अखबार और टीवी पर ही आना होता था। आज भी जितनी संस्थाएं है अधिकतर अपना प्रदर्शन केवल टीवी के सामने ही करती है और उसके बाद अपने टेंट उखाड़ कर चलती बनती हैं। यहाँ भी दिल टूट गया तो फिर यमुना किनारे ही आकर बैठ गए और नाम पर एक कपड़ा रख लिया। <br /><br />मगर यमुना को साफ़ करने का जो रास्ता आज यमुना ने दिखाया है हमें उसको समझना चाहिए। हमें यमुना को साफ़ करने कि ज़रूरत नही है। अपनी गन्दगी तो यमुना ख़ुद बहाकर ले जायेगी, ज़रूरत इस बात की है कि हम इसमें और गंदगी को न जाने दें। आज यमुना काफ़ी हद तक साफ़ है यदि इसमें आगे से हम गंदगी को जाने न दें तो ये दुबारा अपनी पुरानी रंगत में आ जायेगी।Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8032054811370849753.post-2431106651887940242008-08-18T21:52:00.000-07:002008-08-18T21:53:24.306-07:00भूजल कृत्रिम पुनर्भरण योजना के प्रस्ताव तैयार करेंउदयपुर/ जिला कलक्टर कुलदीप रांका ने समस्त विकास अधिकारियों को निर्देश दिए है कि वे अपने-अपने क्षेत्र में कूप द्वारा भू जल कृत्रिम पुनर्भरण योजना के प्रस्ताव तैयार करें ताकि कृषकों को अधिकाधिक लाभ दिलाया जा सके। <br />जिला कलक्टर गुरुवार को कलक्ट्रेट सभागार में आयोजित कूप द्वारा भूजल कृत्रिम पुनर्भरण योजना संबंधी बैठक की अध्यक्षता कर रहे थे। उन्होंने कहा कि इस योजना का उद्देश्य निरन्तर गिरते हुए भूजल स्तर को रोकने तथा भूजल भण्डार में वृद्घि करने का है। इसमें गांवों में कृषि पैदावार में वृद्घि, आर्थिक सम्पन्नता व रहन-सहन में बदलाव आयेगा। इस योजना से फलोराइड प्रभावित क्षेत्रों में पानी की गुणवत्ता में भी सुधार होगा। <br />उन्होंने बताया कि देश के सात राज्यों आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडू के साथ राजस्थान में भी लागू होने जा रही है। योजना की क्रियान्विति के लिए जिला स्तर पर क्रियान्वयन एवं मोनिटरिंग समिति का गठन भी किया गया है। उन्होंने सभी विकास अधिकारियों से अधिक से अधिक प्रस्ताव तैयार करवा कर प्रस्तुत करने के निर्देश दिए। <br />बैठक में मुख्य कार्यकारी अधिकारी बी.आर.भाटी ने बताया कि प्रस्ताव जिला स्तरीय समिति को प्राप्त होने के पश्चात लाभान्वित कृषकों को नाबार्ड के बक खातों में पुनर्भरण संरचना के लिए राशि जमा करवाई जाएगी। नाबार्ड संबंधित एजेन्सी को केपिसिटी बिल्डिंग, मोनिटरिंग, इम्पेक्ट एसेसमेंट के लिए राशि प्रदान करेगा। संरचना में लगाये जाने वाले आवक पाईप की गहराई आने वाले वर्षा जल प्रवाह को ध्यान में रखते हुए रखी जाएगी। उन्होंने बताया कि प्रत्येक ग्राम पंचायत में एक मॉडल की संरचना, पंचायत समिति में नियुक्त अभियंता के द्वारा भूजल विभाग को दिशा निर्देश को तैयार किया जाना प्रस्तावित है। उन्होंने इस कार्य के लिए व्यापक प्रचार-प्रसार कर काश्तकारों में जागरुकता लाने के भी निर्देश दिए। बैठक में अतिरिक्त जिला कलक्टर (प्रशासन) रामजीवन मीणा सहित समस्त विकास अधिकारी उपस्थित थे।Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8032054811370849753.post-60025809072733331682008-08-08T00:02:00.001-07:002008-08-08T00:19:20.792-07:00लोक जीवन में जल-दान की परंपरा<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEheGd8YNQjvA7JogRRPx05xBeoKClfoysdtRDRyA6PAQmm8oPmAGOsHYLg36WmJxMHzK_AfnvX-rZbv8RU0XdNeakHAgsgq9mVFAWW5elt1t9pYQc1sv1g0YyofJBYPYNJVx6f5pFRiEIw/s1600-h/surya_namaskar.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEheGd8YNQjvA7JogRRPx05xBeoKClfoysdtRDRyA6PAQmm8oPmAGOsHYLg36WmJxMHzK_AfnvX-rZbv8RU0XdNeakHAgsgq9mVFAWW5elt1t9pYQc1sv1g0YyofJBYPYNJVx6f5pFRiEIw/s320/surya_namaskar.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5232042932545046370" /></a><br /><br />एक गीत मैं रोज सुनता हूं `किसी प्यासे को पानी पिलाया नहीं, तो मंदिर में जाने से क्या फायदा।' प्यासे को पानी पिलाना लोक-जीवन में बड़ा पुण्य माना जाता है। ग्रीष्मकाल में कस्बों और नगरों में प्याऊ की व्यवस्था इसी पुण्य-बोध का परिणाम है, पर आज सभी स्थानों पर पानी विक्रय की वस्तु बन गया है। जिस समाज में कभी दूध नहीं बेचा जाता था, उसमें पानी के पाउच और पानी की बोतलें बिक रही हैं। जहां इनकी पहुंच नहीं है, वहां मटकों में भरा पानी बिक रहा है। यह बदलते व्यावसायिक युग की मानसिकता भी है और एक अनिवार्यता भी। जो चीज दुर्लभ होने लगती है, उसकी कीमत पहचानी जाने लगती है और फिर वह व्यावसायिक चलन में आ जाती है।<br /><br />पानी का अब व्यावसायिक मूल्य है। पीने के पानी को बेचने के लिए अरबों रुपयों का व्यवसाय किया जा रहा है। एक समय था, जब राज्य सत्ताएँ राहगीरों की प्यास बुझाने के लिए मार्ग में कुओं-बावड़ियों का निर्माण करती थीं। सामाजिक संस्थाएं और दानशील व्यक्ति भी ऐसे जल केन्द्र का निर्माण सार्वजनिक स्थानों और पानी की अनुपलब्धता वाले स्थानों में प्राथमिकता के आधार पर कराते थे और अशासकीय एवं धर्मार्थ संस्थाओं के माध्यम से पानी सुलभ होता था। प्याऊ का बदलता स्वरूप इन दिनों नलों में देखा जा सकता है। सार्वजनिक सुविधाओं के प्रति जैसी उदासीनता आम नागरिकों में पनपी वैसी उदासीनता सार्वजनिक जल-केन्द्र के संबंध में भी अनुभव की जा सकती है। नलों की तोड़-फोड़, उनसे व्यर्थ ही पानी बहना और ऐसे जल केन्द्र की स्वच्छता में अरुचि आदि कारणों ने हमारे समय के जल विषयक चिंतन को ही बदल दिया है। सार्वजनिक जल केन्द्र के पानी का प्रदूषित होना और उसे प्रदूषित समझना दोनों तरह की स्थितियों का प्रचलन आम सोच का विषय बना है। यह भी प्रचारित किया जा रहा है कि स्वास्थ्य के लिए बोतलबंद पानी ही पिया जाए। ऐसी परिस्थितियों में जल-दान का महत्व भी कम होता जा रहा है।<br /><br />लोक-परंपरा में जल-दान का महत्व अभी भी बना हुआ है। गांव में घर के दरवाजे पर आने वाले प्रत्येक आगंतुक का स्वागत आज भी जल पिला कर ही किया जाता है। घर पधारे अतिथि को जल पिलाना लोक-संस्कार में अब भी अपनी जगह जस का तस है। चैत्र का महीना जब आधा व्यतीत हो जाता है, तब सूर्य की किरणों का ताप इतना बढ़ने लगता है कि हवा में तीखी तपिश का अहसास होने लगता है। दोपहरी का विस्तार हो जाता है। आंगन में रखे जाने वाले पानी के घड़े घर के भीतर की घिनौची में चले जाते हैं। ऐसी स्थिति में घर के आसपास रहने वाले चिरई-चिनगुन, जो अक्सर आंगन में रखे बर्तनों में चोंच डुबाकर अपनी प्यास शांत कर लेते थे, पीने के लिए पानी प्राप्त करने में असमर्थ होने लगते हैं। इन पक्षियों की प्यास बुझाने के लिए गांव में घर के सायवान में, दहलान में अथवा खुले किन्तु छायादार स्थान में एक खुले पात्र में पानी टांग दिया जाता है। ज्यादातर ऐसा पात्र मिट्टी के घड़े को आधा फोड़कर बनाया जाता है। घड़े का नीचे वाला आधा हिस्सा तसलानुमा रहता है। इसमें पानी भी अच्छी मात्रा में भर जाता है। टूटे घड़े की गोलाई वाली सतह पर बैठी चिड़ियां पानी पीती रहती हैं। चिड़ियों को पानी पिलाना पुण्य का कार्य माना जाता है।<br /><br />गांवों में कुओं के पास बड़ा हौज बनाया जाता है। इस हौज में गर्मी प्रारंभ होते ही कुएं से पानी खींचकर भरने का रिवाज रहा है। सबेरे-सबेरे हौज को भर दिया जाता था। दिनभर गर्मियों में विचरण करने वाले पशु इस हौज से पानी पीते रहते थे। गांवों के रईस, मालगुजार और धनाढ्य जन कुएं और हौज बनवाया करते थे। उसे प्रतिदिन जल से आपूरित भी कराते थे। लोहे की लंबी सांकल में बंधा धातु का एक डोल कुएं की जगत से स्थायी रूप से बंधा रहता था। यहां से गुजरने वाले यात्रीगण इस डोल से पानी निकालते थे और अपनी प्यास शांत करते थे। पशु-पक्षियों और मनुष्यों को पानी पिलाने की ये प्रथाएं स्पष्ट करती हैं कि लोक-जीवन में पानी पिलाने को धार्मिक दृष्टि से पुण्य-कार्य माना गया था। आज ये प्रथाएं लुप्त प्राय हैं।<br /><br />जल-दान का महत्व देवताओं को जल समर्पित करने में भी रेखांकित किया जा सकता है। स्नान के उपरांत अंजुरी में जल लेकर सूर्य को समर्पित करने का विधान हमारे दैनिक क्रिया-कलापों में शामिल है। पांच या सात अंजुरी अर्घ्य सूर्य देवता को दिया जाता है। लोटे या धातु के अर्घा से भी जल समर्पित किया जाता है। देवताओं के श्री विग्रहों पर जल चढ़ाने की परंपरा है। प्राय तीर्थ-स्थानों में जलाभिषेक अनिवार्य रहता है। विभिन्न पवित्र नदियों का जल वर्षों तक घर में इसलिए रखा जाता है कि उसे किसी विशेष देवता को चढ़ाना है। एक धार्मिक विधान है कि गंगोत्री से लाया गया गंगाजल रामेश्वरम् में शंकर को समर्पित किया जाता है। गांवों की दिनचर्या में यह संभव नहीं हो पाता है कि गंगोत्री की यात्रा करने वाला तत्काल रामेश्वर की यात्रा कर सके। इसलिए गंगाजल कुछ दिन घर में निवास करता है। अनुकूल समय आने पर जल चढ़ाने के लिए दक्षिण की अलग से तीर्थयात्रा की जाती है। लोक में इन दोनों यात्राओं के नाम जल केन्द्रित है। गंगोत्री की यात्रा जल भरने जाने की यात्रा होती है, जबकि रामेश्वरम की यात्रा जल चढ़ाने की यात्रा होती है। यह देवताओं के लिए किया गया जलदान ही है।<br /><br />वैशाख माह में शंकर की प्रस्तर पिंडी पर दिन-रात जल प्रवाहित किया जाता है। शिव स्थापना चाहे आंगन के तुलसी चौबर पर हो या मंदिर के गर्भगृह में, सभी जगह एक माह तक उनको जल से भिगोया जाता है। प्रस्तर पिंडी से थोड़ी अधिक ऊंची एक तिपाई पर एक घड़ा रखा जाता है, घड़े की तलहटी में छेद किया जाता है। इस छेद से एक बत्ती सीधे शंकर की पिंडी के शीर्ष पर लटकती रहती है। इस बत्ती से एक-एक बूंद पानी शंकर जी पर टपकता रहता है। घड़ा खाली होते ही फिर से भर दिया जाता है। शिव-मंदिरों में यह जल-दान परंपरा अभी भी सभी जगह प्रचलित है। एक पौराणिक आख्यान के अनुसार शंकर ने जब समुद्र-मंथन के समय समुद्र से निकले विष का पान कर लिया था तब यह विष उनके गले में इसलिए अटक कर रह गया था कि विष-पान के बाद शंकर को यह ध्यान आया कि उनके हृदय में तो विष्णु का निवास है। इसलिए यदि यह विष गले से नीचे उतर गया तो विष्णु को कष्ट होगा। अत शंकर ने विष को अपने गले में ही धारण कर लिया। इस प्रक्रिया में उनका गला नीला पड़ गया। वे तब से नीलकंठ कहलाते हैं। शंकर ने चूंकि विष लोक-कल्याण के लिए पिया था और विष-पान की पीड़ा को सहा था, इसलिए वे कल्याणकारी शिव के नाम से सम्बोधित किए गए। सामाजिक स्तर पर भी जल-दान विधान विभिन्न तिथि-त्योहारों पर किया गया है। समस्त उत्तर भारत में `बसुआ अष्टमी' का आयोजन ग्रीष्म में ही किया जाता है। पूरा घर इस दिन बासी भोजन करता है। गांव की कन्याओं को आमंत्रित करके उन्हें कोरे घड़े में शीतल जल भरकर दान दिया जाता है। अक्षय तृतीया को भी घड़ों का पूजन किया जाता है। सात घड़ों में पानी भरा जाता है। आम के पत्ते और आम के फल इन घड़ों पर रखे जाते हैं। पूजन के बाद इन घड़ों को पानी सहित दान में दे दिया जाता है।<br /><br />आधुनिक काल में जल-दान के पुण्य को एक बेहतर सामाजिक सेवा के रूप में अनुभव किया जा सकता है। रेलवे स्टेशनों पर अनेक सामाजिक संगठन जल-दान का सेवा-कार्य करते हैं। शीतल-स्वच्छ जल की आपूर्ति हेतु समर्पित कार्यकर्ता इस कार्य में संलग्न रहते हैं। बाजारों और मेलों में भी इस तरह की निशुल्क जलापूर्ति जल-दान के महत्व का बोध कराने वाली ही है।<br /><br />जल-दान की इस परंपरा का पालन करने के लिए हमें अब अलग तरह से सक्रिय होना पड़ेगा। जल की कमी का सामना करना धीरे-धीरे कठिन होता जा रहा है। ऐसे समय में दान करने के लिए जल की प्राप्ति असंभव हो जाएगी। इसलिए जल-संग्रहण करना अब जरूरी हो गया है। जल-संग्रहण ही प्रकारांतर से जल-दान होगा। हमारे घर के आस-पास और घर पर बरसने वाला पानी व्यर्थ न बहे, इसकी एक-एक बूंद बचाने का हमें प्रयास करना होगा। जल-संग्रह की जो अनेक तरकीबें हैं- उन्हें हम अपनाएं और अपनी धरती को जल से लबालब बनाए रखें। यह हमारा पृथ्वी के प्रति जल-दान होगा। इस जल-दान में ही सृष्टि-रक्षा का भाव सन्निहित है। इस तकनीक से लोक परिचित था। इसी आधार पर उसने तालाबों की संरचना की थी और खेतों में बंधानों को महत्व दिया था। यह समस्त आयोजन पृथ्वी को सुजलां-सुफलां बनाने का भी था और पृथ्वी का यह जलाभिषेक भी था। जल से संबंधित लोक आचरण प्रजातांत्रिक मूल्यों की रक्षा करने वाला रहा है। हम जल के इस भाव को सुरक्षित रखने का प्रयास करके ही जल को सर्वसुलभ बना सकते हैं।Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8032054811370849753.post-30185437343807005022008-08-08T00:02:00.000-07:002008-08-08T00:03:49.497-07:00पाताल जा पहुंचा पानीवीरेंद्र राजपूत<br />भोपाल.प्रदेश में पानी के लिए जमीन की अंधाधुंध खुदाई जारी है। यही कारण है कि भोपाल समेत पूरे प्रदेश में जमीन का पानी लगातार नीचे जा रहा है। सूखते कुएं, तालाब और ट्यूबवैल इसकी नजीर हैं। चिंताजनक पहलू यह है कि अब भी लोगों ने पानी के महत्व को नहीं समझा है। जानकारों का कहना है कि पानी को रीचार्ज करके ही पानी के ‘संकट’ से पार पाया जा सकता है। <br /><br /><strong>सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड के </strong><br /><br />मुताबिक वर्ष 1998 से 2007 तक प्रदेश में भूजल स्तर में गिरावट के ट्रेंड पर गौर करें तो यह बात सामने आती है कि बुंदेलखंड, बघेलखंड, निमाड़ और चंबल इलाकों में भू जलस्तर में तेजी से गिरावट आ रही है। <br /><br />इससे सिद्ध होता है कि राज्य शासन द्वारा पिछले तीन वर्र्षो से चलाए जा रहे जलाभिषेक अभियान में मैदानी प्रगति नहीं हुई है। जब तक पानी बचाव के लिए बंड, पोखर, तालाब आदि का जिलेवार मास्टर प्लान अथवा एटलस तैयार नहीं होगा, तब तक किए जाने वाले सारे उपाय व्यर्थ साबित होंगे। मालवा, महाकौशल और मध्य भारत में जरूर कुछ स्थानों पर भू जलस्तर में बढ़ोतरी हुई है। इसका कारण इन इलाकों में सामान्य या इससे अधिक बारिश होना है। <br /><br />जानकारी के मुताबिक भू जलस्तर में कमी आने से भविष्य में कई जिले जल अभाव ग्रस्त की श्रेणी में आ सकते हैं। इसकी रोकथाम के लिए बरसातीपानी को रोकने के लिए अगर जमीनी स्तर पर काम नहीं हुए तो नतीजे गंभीर हो सकते हैं। <br /><br /><strong>संवेदनशील जिले</strong><br /><br />प्रदेश में 20 से अधिक जिले ऐसे हैं, जहां भूजल स्तर में कमी के ट्रेंड में प्रति वर्ष 20 सेंटीमीटर या उससे अधिक की कमी आ रही है। सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड के मुताबिक भू जलस्तर की दृष्टि से इन जिलों को संवेदनशील माना जा सकता है। <br /><br /><strong>इन जिलों में है भयावह हालात</strong><br /><br />भिंड, बुरहानपुर, छतरपुर, मुरैना, टीकमगढ़, उमरिया, बालाघाट, ग्वालियर, गुना, सीधी, रीवा, श्योपुरकलां, सागर, रायसेन, शिवपुरी, शाजापुर, राजगढ़, पन्ना, नरसिंहपुर, खंडवा, मंडला, दतिया और देवास। <br /><br /><strong>लोगों में जागरूकता की जरूरत</strong><br /><br />भू जलस्तर में कमी चिंता का विषय है। लोग जमीन से पानी तो भरपूर निकाल रहे हैं, पर पानी को रीचार्ज करने को लेकर कोई गंभीर नहीं है। इसलिए भूजल स्तर लगातार नीचे जा रहा है। पानी बचाने को लेकर लोगों में जागरूकता जरूरी है। लोगों को चाहिए कि वे पानी की बर्बादी रोकें और पानी को रीचार्ज करें। <br /><br />- डा. डीके गोयल, वरिष्ठ वैज्ञानिक सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड<br /><a href="http://www.bhaskar.com/2008/05/08/0805080047_water.html">http://www.bhaskar.com</a>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8032054811370849753.post-17620950511134239032008-08-03T21:37:00.000-07:002008-08-03T21:38:22.796-07:00पहरेदार ओस की बूंदों केभुज [कच्छ], [आशुतोष शुक्ल]। आईआईएम अहमदाबाद के प्रो. गिरजा शरण, कोठारा गांव के हारुन व रफीक बकाल, सात सौ साल से भी अधिक पुराने जैन तीर्थ सुथरी के प्राण जीवन गोर और सायरा प्रायमरी स्कूल के हेडमास्टर सोढ़ा प्रताप सिंह में भला क्या समानता हो सकती है? अलग-अलग पृष्ठभूमि के इन लोगों में बस एक विचार साझा है। वे सब ओस की बूंदों के पहरेदार हैं। उन्होंने ओस की बूंद-बूंद जमा करके टंकियां भरने का करिश्मा कर दिखाया है। <br /><br />मैदानी इलाकों में लोगों को पानी बर्बाद करते हुए देख कर दुख होता है। लेकिन समुद्र से लगे कोठारा में, जहां चार सौ फीट धरती खोदने पर भी पानी की गारंटी नहीं, जहां पांच बार खोदने पर चार दफा खारा पानी निकलता है, वहां ओस की बूंदों से जमा पानी पीते बच्चों को देखना सुखद अहसास है। जल संरक्षण का यह वह चमत्कार है जो न केवल भारत के साढ़े सात हजार किलोमीटर लंबे समुद्र तटों बल्कि पर्वतीय और रेगिस्तानी इलाकों की भी कायापलट कर सकता है। यही वजह है कि इजरायल, यूनान और चिली जैसे देशों में पानी बचाने के इस निराले तरीके पर अब गोष्ठियां हो रही हैं। अपने मैदानों में यह कल्पना भी नहीं की जा सकती है कि इस विधि से गुजरात के तटीय क्षेत्रों में एक व्यक्ति को औसतन चार लीटर पेयजल रोज दिया जा सकता है। 120 वर्ग फुट में आठ महीने में करीब बारह सौ लीटर पेयजल बनाया जा सकता है। <br /><br />इस अभिनव प्रयोग का ही कमाल है कि पाकिस्तान सीमा से लगे कोटेश्वर में गुजरात मिनरल डेवलेपमेंट कारपोरेशन ने 850 वर्ग मीटर में यह काम शुरू किया है। कृष्ण की द्वारका सहित कई और स्थानों पर भी 'ड्यू वाटर हार्वेस्टिंग' सफलतापूर्वक हो रही है। आइए समझें यह प्रयोग है क्या? इसकी शुरूआत दिलचस्प है। अहमदाबाद से पांच सौ किलोमीटर दूर कोठारा गांव में आईआईएम अहमदाबाद का ग्रीन हाउस है। अप्रैल 2002 की एक सुबह कर्मचारी हारुन ने ग्रीन हाउस की ढलवां छत के नीचे पानी की काफी मात्रा देखी। उसने यह बात इलाहाबाद में पढ़े और मूलत: कृषि वैज्ञानिक प्रो. गिरजा शरण को बताई। प्रो. शरण को भी ग्रीन हाउस के आसपास की जमीन गीली लगी तो उन्होंने पानी एकत्र करके अहमदाबाद जांच के लिए भेजा। प्रो. शरण कहते है जांच रिपोर्ट ने हमारा उत्साह बढ़ा दिया, पता चला कि यह तो शुद्ध पेयजल है। यह वह रिपोर्ट थी जिसने जल संरक्षण में मानों क्रांति ला दी। यह अलग बात है कि इस खोज के खरीददार नहीं मिले। प्रो. शरण को अगले प्रयोगों के लिए दो लाख रुपये चाहिए थे, लेकिन काफी कोशिशों के बाद कोई संस्थान उनकी मदद को आगे नहीं आया। भाग्य से उसी समय विश्व बैंक ने जल संरक्षण पर प्रोजेक्ट आमंत्रित किए। प्रो. शरण ने इस रिपोर्ट को भेजा तो उन्हें बीस हजार डालर का इनाम मिल गया। यही रकम प्रोजेक्ट में लगी। प्रो. शरण बताते हैं कि कोठारा और दूसरे समुद्र तटीय क्षेत्रों में आश्चर्यजनक रूप से अक्टूबर से अप्रैल तक यानी आठ महीने ओस पड़ती है। और इस अवधि का फायदा उठाया जा सकता है। इस तकनीक को इंजीनियरिंग संस्थानों और हाइड्रोलाजिस्टों को पढ़ाने की जरूरत है। <br /><br />सामान्य है तरीका <br /><br />ओस की बूंदों को पानी में बदलने का तरीका सामान्य है। मकान या स्कूल की छत पर सीमेंट, प्लास्टिक, एल्युमिनियम, फाइबर या टीन की ढालू चादरें डालनी होती हैं। वैसे आईआईएम ने पाली एथलीन में कुछ और मिश्रण डालकर नई चादर तैयार की है। इमारत के नीचे पाइप होते हैं जो एक बड़े ड्रम से जुड़े होते हैं। जरूरत हुई तो स्कूल आदि में इस पानी को पक्के अंडर ग्राउंड टैंकों में जमा कर लेते हैं। इसी पानी से फूलों की सिंचाई हुई तो कच्छ जैसे इलाके [सुथरी] में बिल्वपत्र, हल्दी, नींबू और सायरा में गुलमोहर फलने लगे। यह प्रयोग मामूली लागत में सौ वर्ग फीट पर भी हो सकता है। कोटेश्वर में तो जमीन पर चादर डाली गई है। प्रो. शरण के अनुसार मध्य काल में सहारा रेगिस्तान में चलने वाले बद्दू और अरब इसी तकनीक के सहारे पानी पाते थे। उनका दावा है कि रेगिस्तान में ड्यूटी करने वाले सिपाही के लिए छाते जैसी एक ऐसी किट बनाई जा सकती है जो उसके बैग में आ जाए और हर सुबह एक-डेढ़ लीटर पेयजल दे सके।<br />__________________<br /><br />क्या करें, अपना तो कुछ ऐसा ही भुरभुरा स्वभाव है |Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8032054811370849753.post-51294025891147049522008-06-27T05:54:00.001-07:002008-06-27T05:56:45.583-07:00पानी डरा रहा है -प्रेम जनमेजय<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhAaROzwgMxXq5MfG1CLrrVs4do76ImnNLCXrK02b4UxHz1oVdQud5zJJEnfxp4eQmHrqmq7pq4LyxVNeG3_G3CNKaZRjorHNoh1MukAA6_bQmELavsvInPRN_aP5Yz15eKpQD5C2ITBSc/s1600-h/pani.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhAaROzwgMxXq5MfG1CLrrVs4do76ImnNLCXrK02b4UxHz1oVdQud5zJJEnfxp4eQmHrqmq7pq4LyxVNeG3_G3CNKaZRjorHNoh1MukAA6_bQmELavsvInPRN_aP5Yz15eKpQD5C2ITBSc/s320/pani.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5216544388409268914" /></a> <strong>हास्य व्यंग्य </strong><br /> <br />मैं दिल्लीवासी हूँ इसलिए मेरे नल में दिल्लीवाली यमुना का जल आता है, हरियाणा या उत्तर प्रदेश वाली यमुना का जल नहीं। आप भी तो महाराष्ट्र, सौराष्ट्र आदि राष्ट्रों के वासी होंगे और आपके नल में भी आपके राष्ट्र वाला पानी ही आता होगा। तो मित्रों मेरे नल में जो दिल्ली वाली यमुना का जल आता है उसको पीते ही आपको ईश्वर समीप दिखाई देने लगता है। ऐसे ही पवित्र जल में नहाते हुए मैं नहाने के अतिरिक्त गा रहा था... कान्हा तेरी यमुना मैली हो गई, दिल्ली के पाप धोते-धोते।'<br /><br />राधा कांत ने तो मेरी पुकार नहीं सुनी, राधेलाल ने सुन ली। राधेलाल मेरे पड़ोसी हैं, भगवान ऐसा पड़ोसी सब को दे, निंदक को नेवरे रखने की आवश्यकता खत्म हो जाती है। राधेलाल में विरोधी दल की आत्मा का निवास है इसलिए मेरे विरोध का कोई अवसर वो चूकते नहीं हैं। इस बार भी नहीं चूके और मेरी पत्नी के सामने मेरे फ़िल्मी ज्ञान की खिल्ली उड़ाते हुए बोले, ''देखा भाभी जी इसे कोई भी काम सही नहीं आता है। इसे आसान-सा गाना नहीं आता है। प्यारे गाना इस तरह से है- राम तेरी गंगा मैली हो गई पापियों के पाप धोते-धोते। यमुना ने आज तक किसी के पाप धोए हैं?''<br /><br />सच कहा राधेलाल ने कि यमुना ने पाप धोए नहीं हैं, एकत्रित ही किए हैं, ख़ासकर दिल्ली वाली यमुना ने। और सच कहा मेरी पत्नी ने, ''अरे भाई साहब, इन्होंने आजतक कोई काम सही किया है जो अब करेंगे? किया होता तो क्या हम इस दो कमरों के सरकारी मकान में सड़ रहे होते, इनके साथ काम करने वाले शर्मा जी की तरह तिमंज़िला कोठी न होती हमारी? हमारी तो गंगा और यमुना क्या मैली होंगी, उनमें तो पानी ही नहीं है।''<br /><br />मैंने पत्नी की बात को सदा की तरह अनसुना करते हुए कहा, ''पर राधेलाल हमारी दिल्ली की नदी तो यमुना है, हम तो दिल्ली की ही बात करेंगे। वैसे भी राधेलाल वो गंगा हो या यमुना, कृष्णा हो या कावेरी सभी के किनारों पर इन नदियों को मैला करने वाले उपादान-- विधानसभाएँ, पुलिस स्टेशन, सरकारी कार्यालय आदि मौजूद हैं। ये गीत तो किसी भी नदी के साथ गाया जा सकता है। जहाँ नदी न हो समुद्र के साथ गा लो।''<br /><br />राधेलाल ने फिर मेरी खुश्की उड़ाते हुए कहा, ''गा लो पर प्रेम भाई जितना गाना है, ये गाने आप अधिक नहीं गा पाएँगे क्योंकि बहुत जल्दी बिन पानी सब सून होने जा रहा है। भविष्यवाणी हो चुकी है कि अगला विश्वयुद्ध पानी पर लड़ा जाएगा। और आप तो हिंदी वाले हैं जानते ही हैं कि रहीम ने बहुत पहले ही चेता दिया था, ''रहिमन पानी रखिए, बिन पानी सब सून। हमने पानी रखा नहीं तो अब सब सून होने ही जा रहा है।''<br /><br />मैंने पाया मेरा पड़ोसी होने और चिर विरोधी होने के बावजूद राधेलाल मुझसे सहमति जता रहा है। वो मेरी ही तरह चिंतित है। मैंने कहा, ''राधेलाल जी यह क्या पाकिस्तान की तरह आप अपना पड़ोस-धर्म भूल रहे हैं, आपको तो मेरे निरंतर विरोध से मुझे आतंकित करना है।''<br /><br />राधेलाल ने कहा, ''प्रेम भाई जब मानवता पर संकट हो तो हमें छोटे विरोध भूल ही जाने चाहिए। आप तो देख रही रहे हैं कि पीने का ही नहीं मनुष्य के अंदर का पानी भी सूख रहा है। मानवीय रिश्ते सूखकर काँटा हो गए हैं। हमारे सामाजिक जीवन में से गाँव, मोहल्ला तो गायब हो ही चुके थे, अब परिवार भी छिन गया है। अलग-अलग स्वाद वाला पानी गायब हो गया है, रह गया है तो एक ही स्वाद वाला मिनरल वॉटर। बदलते होंगे कुछ कोस में भाषा और कुछ कोस में पानी, आजकल कुछ नहीं बदलता। मैं पशुवत जीवन जीने वाले मनुष्य की बात नहीं कर रहा हूँ जो आज भी जोहड़, तालाब और कुँओं का पानी पीता है और अपनी भाषा बोलता है, मैं तो उस सभ्य मनुष्य की बात कर रहा हूँ जो मिनरल वॉटर पीता है और पाँच सितारा भाषा बोलता है। ऐसे सभ्य मनुष्य कितने कोस चल लें उनकी भाषा और पानी नहीं बदलता है। सभ्य मनुष्य तो दूसरों को सभ्य बनाता है ताकि उसकी सभ्यता टिकी रहे और उसे सँभालने वाले गुलाम मिल जाएँ। आप तो जानते ही हैं कि आजकल अमेरिका विश्व को सभ्य बनाने में लगा हुआ है। उसने हमारे देश को बता दिया है कि हमारा खानपान असभ्य है और इसके कारण ही विश्व में अन्न संकट पैदा हुआ है। वो हमें बता रहा है कि हमारे खानपान की आदतें ठीक नहीं हैं और हमें खाने की तमीज़ नहीं है। हमारी राजनीति, हमारे शेयर बाज़ार, हमारी युवा शक्ति आदि तो वहाँ से संचालित हो ही रहे हैं, वो दिन दूर नहीं जब हमारा खानपान भी वहाँ से संचालित होने लगेगा।'' ये कहकर राधेलाल ऐसे उदास हो गया जैसे वो संस्कारयुक्त बहन जी दिखने वाली भारतीय लड़की का पिता हो।<br /><br />पानी सदा से डराता रहा है कभी अपने अतिरेक से और कभी अपने सूखेपन से। ज़मीन का पानी सूख रहा है और समुद्र का पानी किनारे बसे शहरों की लीलने के लिए अपना विकास कर रहा है। मुझे विश्वास हे कि जबतक मनुष्य के अंदर का पानी नहीं सूखेगा, राधेलाल की तरह चिर विरोधी होने के बावजूद मनुष्य हर खतरे के ख़िलाफ़ एकजुट रहेगा, तबतक पानी चाहे मानव को कितना डरा ले पर पराजित नहीं कर सकेगा।<br /><br />२६ मई २००८ <br /><a href="http://www.abhivyakti-hindi.org/vyangya/2008/panidararahahai.htm">http://www.abhivyakti-hindi.org</a>Unknownnoreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8032054811370849753.post-86784126585068415762008-06-26T22:51:00.000-07:002008-06-26T22:52:07.054-07:00यूपी में दरकती धरती से हड़कंपलखनऊ: उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने सूखाग्रस्त बुंदेलखंड समेत कई इलाकों में जमीन फटने की बढ़ती घटनाओं की जांच का निर्देश अधिकारियों को दिया है। जहां-जहां धरती दरकी है, उस इलाके को डेंजर जोन मानते हुए हाई अलर्ट घोषित किया गया है। इस बीच, इलाहाबाद जिले के यमुना पार इलाके के कई गांवों में जमीन में दरार पड़ने के बाद लोगों में दहशत फैल गई। प्रभावित गांव मेजा तहसील में हैं। वहां भूजल के गिरते लेवल पर लंबे समय से चिंता जताई जा रही थी। <br /><br />ग्रामीणों ने बताया कि दरारें 3-4 फुट तक चौड़ी और 20 फुट तक लंबी हैं। आसपास के कुछ मकानों में भी दरारें देखी गईं। इलाहाबाद जिले से होकर गुजरने वाले दिल्ली-हावड़ा रेल मार्ग को भी खतरे की आशंका जताई जा रही है। कानपुर देहात, कानपुर शहर, औरेय्या, इटावा, और फतेहपुर में बुंदेलखंड की तरह जमीन में दरार पड़ने की खबर है। <br /><br />जमीन फटने की घटनाओं की जानकारी मिलने पर मायावती ने पिछले शुक्रवार को यहां एक उच्चस्तरीय बैठक भी की थी। राज्य सरकार को सौंपी गई अपनी प्रारंभिक रिपोर्ट में विशेषज्ञों ने दावा किया कि जमीन फटने की घटना किसी भूगर्भीय गतिविधि के बजाए भूगर्भ जल के अत्यधिक दोहन की वजह से हो रही हैं। इन घटनाओं की जांच कर रहे भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण ने राज्य सरकार को भूगर्भ जल के अत्यधिक दोहन को नियंत्रित करने और भूगर्भ जल संसाधन को बढ़ाने के लिए तुरंत कदम उठाने का सुझाव दिया है। टीमें हमीरपुर, जालौन और इटावा भेजी हैं। वह इस बारे में राज्य सरकार को अपनी विस्तृत रिपोर्ट सोमवार को दे सकता है। <br /><br />सर्वेक्षण के उप महानिदेशक दीपक श्रीवास्तव के अनुसार सूखाग्रस्त इलाकों में जमीन फटने या दरार पड़ने की घटनाएं भूगर्भ जल के अत्यधिक दोहन की वजह से हो रही हैं। पिछले हफ्ते इस क्षेत्र में हुई बारिश की वजह से भूमिगत जल की पहली परत रीचार्ज हो गई, जिससे तनाव कम होने पर जमीन में दरार पड़ गई। हमीरपुर और जालौन जिलों के गांवों का दौरा करने वाली टीम ने पाया कि जमीन फटने की घटनाएं उन्हीं जगहों पर हुई हैं, जहां पानी के अत्यधिक दोहन की वजह से भूमि की सतह कमजोर हो गई थी। श्रीवास्तव ने इस बात से इनकार किया कि इस तरह की घटनाएं भूकंप आने का पूर्व संकेत हो सकती हैं।Unknownnoreply@blogger.com0