शनिवार, 7 जून 2008

हाँ यही है पानी की हकीकत

डॉ. महेश परिमल
नदी का स्वभाव चंचल होता है,जो नदी चंचल नहीं होती, वह कुछ समय बाद अपना अस्तित्व खो देती है। हमारे देश में कई नदियाँ हैं, कुछ तो पवित्र मानी जाती हैं, तो कुछ को वरदान के रूप में माना जाता है। लोगों का नदियों के साथ अपनापा होता है। अपनी मान्यताओं के कारण ये नदियाँ लोगों की धार्मिक आस्थाओं का केंद्र बिंदु होती हैं। नर्मदा नदी, जो मुख्य रूप से छत्तीसगढ़ के अमरकंटक से निकलती है, मध्यप्रदेश को धन्यधान्य करती हुई गुजरात के सूखाग्रस्त क्षेत्र बनासकांठा से लेकर अब राजस्थान की धरती को हरा-भरा करने लगी है। इसी तरह पवित्र गंगा नदी, जो हिमालय से निकलकर समूचे उत्तर भारत को अपना आशीर्वाद प्रदान करती है। अब यदि इन्हीं नदियों के पानी को बोतल में भरकर बेचा जाए, तो भला कौन भारतीय नहीं होगा, जो इसे न खरीदे? लोगों की इन्हीं धार्मिक भावनाओं को पोषित करते हुए देश की कई कंपनियों ने तय किया है कि अब इन नदियों के पानी को बोतल में बंद करके बेचा जाए। पानी की इस हकीकत को समझना बहुत ही आसान है, लेकिन इसके पीछे की कुत्सित भावनाओं को यदि न समझा गया, तो लोग हवा भी बेचने से नहीं चूकेंगे, यह तय है।
उस दिन पूजा सामग्री की एक दुकान में छोटे-छोटे कंडे देखे और एक छोटी सी बोतल में गौमूत्र देखा, तो आश्यर्च में पड़ गया, अरे! यह क्या, अब ऐसी चीों भी बिकने लगीं। भई क्या बात है। अधिक समय नहीं हुआ, जब इस तरह की चीों गौ पालक लोगों को ऐसे ही बाँट दिया करते थे, गोबर के लिए तो यही कहा जाता था कि जितना चाहे, ले जाओ। कभी कोई मनाही नहीं। आज जब यही चीों बिकने के नाम से बाजार में हैं, तो लगता है कि हम कितने आधुनिक हो गए हैं। अब हम इस पर न जाएँ कि आज पॉलीथीन का भक्षण करने वाली गाय का दूध कितना असली होता होगा और उसका मूत्र कितना लाभकारी होगा। कचरा खाने वाली गाय को गोबर भी कितना पवित्र होगा, यह तो गाय से ही पूछो, जिसे हमने ही दूध निकालकर सड़क पर अनाथ बनाकर छोड़ दिया है।
अब जाने पानी की हकीकत। आज भारत में बोतलबंद पानी का बाजार वार्षिक 1 हजार 800 करोड़ रुपए का है और 25 पतिशत की दर से इसमें लगातार विकास हो रहा है। देश में करीब 200 प्रकार के मिनरल वॉटर के ब्रांड मौजूद हैं। आश्यर्च कि ये सभी ब्रांड मुनाफा कमा रहे हैं। इसमें से शायद ही कोई कंपनी ऐसी होगी, जो मिनरल वॉटर के लिए प्राकृतिक झरने का पानी इस्तेमाल में लाती होगी। अधिकांश कंपनियाँ जमीन के पाताल कुएँ से मुफ्त में पानी निकाल रही हैं। इसका शुद्धिकरण कर दस से बारह रुपए लीटर के भाव से इस पानी को बेच रही हैं। जमीन से एक लीटर पानी निकालने के लिए ये कंपनियाँ सरकार को मात्र ढाई पैसे चुकाती हैं, पानी को शुद्ध करने का खर्च प्रति लीटर मात्र 25 पैसा किया जाता है। इसके बाद यही पानी जब बाजार में दस से बारह रुपए लीटर बिकता है, तो हम आसानी से खरीद लेते हैं। अनजाने में हम उस कंपनी के मुनाफा देने का एक कारण बन जाते हैं। ये पानी कितना शुद्ध है, यह बताने की आवश्यकता नहीं, इस पर समय-समय पर विवाद होता ही रहता है।
पवित्र नदियों की लोकपि्रयता को भुनाने के लिए गुजरात की अमूल डेरी ने नर्मदा के पानी को बेचने की योजना बनाई है। वड़ोदरा में एक बॉटलिंग प्लांट लगाया गया है, जहाँ नर्मदा का पानी बोतलों में बंद कर बेचा जाएगा। नर्मदा नदी भले ही मध्यप्रदेश के सुदूर गाँवों तक न पहुँच पाई हो, पर यह सच है कि अब वह बोतल में बंद होकर देश के सुदूर गाँवों तक पहुँच जाएगी। विदेशों में आज भी औषधीय गुण वाले पानी को बोतल में बंद कर बेचने की परंपरा है, उसे ही ध्यान में रखते हुए हमारे देश में भी लोगों को धार्मिक भावनाओं को पोषित करने के नाम पर नर्मदा और गंगा नदी का पानी बेचने का एक सुनियोजित षडयंत्र चल रहा है। इस कार्य में राय सरकारों का कितना हाथ है, यह शोध का विषय हो सकता है।
विदेशों का औषधीय गुण वाला पानी 25 से 50 रुपए लीटर के भाव से बेचा जाता है। भारत मेें यदि कोइर्ण पानी अत्यंत शुध्द माना जाता है, तो वह है हिमालय की तराइयों से झरता हुआ गंगा नदी का पानी। इसे ही ध्यान में रखते हुए बिसलरी और टाटा जैसी कंपनियों ने इस पवित्र और औषधीय गुण वाले पानी को बोतल में बंद कर ऊँची कीमतों में बेचने का निर्णय लिया है। योजना तो यह भी है कि इस पानी को विदेशों में भी बेचा जाए, ताकि वहाँ रहने वाले भारतीयों की ही धार्मिक भावनाओं को डॉलर के माध्यम से भुनाया जाए। इस पानी में औषधीय गुण मात्र 5 प्रतिशत है, लेकिन कंपनी ने पानी का ब्रांड नाम ही 'हिमालय' रखा है, इसी से लोगों की धार्मिक भावनाएँ जुड़ जाती हैं। बिसलरी की योजना है कि आगामी दो वर्षों में 200 करोड़ रुपए का औषधीय पानी बोतल में बंद करके बेचा जाए। इसके लिए हिमाचल प्रदेश और उत्तरांचल में प्लांट लगाया गया है। माउंट एवरेस्ट मिनरल वॉटर नाम की कंपनी ही हिमालय के झरने का पानी बोतल में बंद कर 'हिमालय' के नाम पर बेच रही है। एक अनुमान के अनुसार यह कंपनी हर साल करीब 25 करोड़ रुपए का 'पवित्र पानी' बेच रही है। इस कंपनी के मुनाफे को देखते हुए टाटा कंपनी से इस कंपनी को खरीदने की योजना बनाई है। इस कंपनी के शेयर टाटा ने 470 करोड़ रुपए में खरीद लिए हैं। इस कंपनी का प्लांट हिमालय की पर्वतमाला में ऐसे स्थान पर स्थापित किया गया है, जहाँ भूगर्भ से कभी न खाली होने वाले जलस्रोत के भंडार हैं। यह पानी उच्च कोटि का औषधीय गुण से परिपूर्ण है। इस कंपनी ने भारत सरकार से यह जमीन 99 वर्ष के लिए लीज पर ली है। बहरहाल कंपनी हर वर्ष एक अरब लीटर पानी निकालेगी, किंतु अभीउसमें से एक करोड़ लीटर पानी भी नहीं निकाला गया है। यह कंपनी टाटा जैसी बड़ी कंपनी के हाथ में आ जाएगी, तो फिर कहना ही क्या, वह तो अरबों रुपए की कमाई करेगी, यह तय है।
यूँ देखा जाए, तो भारतीय सादे पानी की बोतल दस से बारह रुपए में खरीदने लगे हैं, पर वास्तव में मिनरल वॉटर 25 रुपए या इससे अधिक में बेचा जा रहा है। 'हिमालय' ब्रांड मिनरल वॉटर की एक बोतल की कीमत 25 रुपए है, यह कंपनी हर वर्ष एक करोड़ लीटर पानी बेचती है। विदेश से आने वाला एवियन ब्रांड का स्प्रिंग वॉटर की एक बोतल 80 रुपए में मिलती है। इसी तरह पेरियर नाम की एक स्0श्निंप्रग वॉटर की एक बोतल 110 रुपए में हमारे ही देश में मिल रही है। इसे खरीदने में हमारे देश के ही कई लोग गर्व का अनुभव करते हैं।
अभी हमारे देश की गरीब जनता इस तरह का मिनरल वॉटर पीने की आदी नहीं हुई है, धीरे-धीरे दस से बारह रुपए में मिलने वाली बोतल खरीदने की कोशिश कर रही है। भारतीयों की इसी मानसिकता का पूरा फायदा उठाने के लिए बड़ी-बड़ी कंपनियाँ ताक में बैठी हैं। अभी भारतीय हर वर्ष केवल 0.6 लीटर पानी ही खरीद रहे हैं, किंतु इटली में हर वर्ष लोग 183 बोतल पानी बाजार से खरीद रहे हैं। हमारे देश में जितना भी बोतलबंद पानी बेचा जा रहा है, उसमें बिसलरी का प्रतिशत केवल 16 है, इसके बाद कोक और पेप्सी का नाम आता है, उनका प्रतिशत 13-13 है। अब जब टाटा और अमूल भी इस मैदान में कूदेंगी, तो निश्चित ही इसमें कड़ी स्पर्धा होगी।
बात जब अमूल और टाटा जैसी कंपनियों की हो, तो भला मुम्बई महानगरपालिका कैसे पीछे रह सकती है। मायानगरी में पानी की आपूर्ति करने के लिए ऍंगरेजों के जमाने की विहार, तुलसी, वैतरणा और तांसा जैसे तालाबों का इस्तेमला करने की सोच रही है। यह सच है कि इन तालाबों को ऍंगरेजों ने बनवाया, आज ये तालाब जंगल में होने के कारण इसका पानी अत्यंत शुद्ध और उच्च गुणवत्ता वाला है। वैसे इन तालाबों में जितना पानी है, वह एक करोड़ 20 लाख मुम्बईवासियों की प्यास बुझाने के लिए बहुत ही कम है। इसे ही देखते हुए मुम्बई महानगरपालिका इन तालाबों के पानी को बोतल में बंद करके बेचने की योजना बना रही है। इसके लिए 1888 में बने म्युनिसिपल एक्ट के कुछ नियमों में फेरफार किए जा रहे हैं। लेकिन यहाँ पर कहना होगा कि यह पानी अन्य बोतलबंद पानी से आधी कीमत में बेचा जाएगा, ऐसा माना जा रहा है।

पानी हिमालय का हो, या फिर गंगा या नर्मदा का। इसका निर्माण प्रकृति ने बिना किसी भेदभाव के मानवमात्र की भलाई के लिए किया है। इस पानी पर कोई कंपनी या व्यापारी अपना मालिकाना हक जताकर उसका व्यापार नहीं कर सकता। यदि कोई इस तरह से करता है, तो इसे तो मानव विरोधी प्रवृत्ति कहा जाएगा। इस पानी का व्यापारिक उपयोग के लिए भारत सरकार को किसी भी तरह की अनुमति नहीं देनी चाहिए। प्रजा को इस तरह से पानी खरीदने के लिए मना किया जाना चाहिए। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो कई देशी-विदेशी कंपनियाँ हमारे देश की पवित्र नदियों को खरीद लिया जाएगा। इसके बाद अपनी नदी, अपना पानी होने के बाद हमें इन कंपनियों को पानी के लिए धन देना पडेग़ा। प्रकृति ने तो भारत सरकार को इस तरह से नदियों को बेचने का अधिकार नहीं दिया है, तो फिर सरकार के खिलाफ ही क्यों न आवाज बुलंद की जाए। आखिर कब तक सरकार इस तरह से देशी-विदेशी कंपनियों के हाथों की कठपुतली बनी रहेगी और गरीब जनता अपने ही देश में अपनों के हाथों छलती रहेगी?
डॉ. महेश परिमल http://dr-mahesh-parimal.blogspot.com

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