रविवार, 3 अगस्त 2008

पहरेदार ओस की बूंदों के

भुज [कच्छ], [आशुतोष शुक्ल]। आईआईएम अहमदाबाद के प्रो. गिरजा शरण, कोठारा गांव के हारुन व रफीक बकाल, सात सौ साल से भी अधिक पुराने जैन तीर्थ सुथरी के प्राण जीवन गोर और सायरा प्रायमरी स्कूल के हेडमास्टर सोढ़ा प्रताप सिंह में भला क्या समानता हो सकती है? अलग-अलग पृष्ठभूमि के इन लोगों में बस एक विचार साझा है। वे सब ओस की बूंदों के पहरेदार हैं। उन्होंने ओस की बूंद-बूंद जमा करके टंकियां भरने का करिश्मा कर दिखाया है।

मैदानी इलाकों में लोगों को पानी बर्बाद करते हुए देख कर दुख होता है। लेकिन समुद्र से लगे कोठारा में, जहां चार सौ फीट धरती खोदने पर भी पानी की गारंटी नहीं, जहां पांच बार खोदने पर चार दफा खारा पानी निकलता है, वहां ओस की बूंदों से जमा पानी पीते बच्चों को देखना सुखद अहसास है। जल संरक्षण का यह वह चमत्कार है जो न केवल भारत के साढ़े सात हजार किलोमीटर लंबे समुद्र तटों बल्कि पर्वतीय और रेगिस्तानी इलाकों की भी कायापलट कर सकता है। यही वजह है कि इजरायल, यूनान और चिली जैसे देशों में पानी बचाने के इस निराले तरीके पर अब गोष्ठियां हो रही हैं। अपने मैदानों में यह कल्पना भी नहीं की जा सकती है कि इस विधि से गुजरात के तटीय क्षेत्रों में एक व्यक्ति को औसतन चार लीटर पेयजल रोज दिया जा सकता है। 120 वर्ग फुट में आठ महीने में करीब बारह सौ लीटर पेयजल बनाया जा सकता है।

इस अभिनव प्रयोग का ही कमाल है कि पाकिस्तान सीमा से लगे कोटेश्वर में गुजरात मिनरल डेवलेपमेंट कारपोरेशन ने 850 वर्ग मीटर में यह काम शुरू किया है। कृष्ण की द्वारका सहित कई और स्थानों पर भी 'ड्यू वाटर हार्वेस्टिंग' सफलतापूर्वक हो रही है। आइए समझें यह प्रयोग है क्या? इसकी शुरूआत दिलचस्प है। अहमदाबाद से पांच सौ किलोमीटर दूर कोठारा गांव में आईआईएम अहमदाबाद का ग्रीन हाउस है। अप्रैल 2002 की एक सुबह कर्मचारी हारुन ने ग्रीन हाउस की ढलवां छत के नीचे पानी की काफी मात्रा देखी। उसने यह बात इलाहाबाद में पढ़े और मूलत: कृषि वैज्ञानिक प्रो. गिरजा शरण को बताई। प्रो. शरण को भी ग्रीन हाउस के आसपास की जमीन गीली लगी तो उन्होंने पानी एकत्र करके अहमदाबाद जांच के लिए भेजा। प्रो. शरण कहते है जांच रिपोर्ट ने हमारा उत्साह बढ़ा दिया, पता चला कि यह तो शुद्ध पेयजल है। यह वह रिपोर्ट थी जिसने जल संरक्षण में मानों क्रांति ला दी। यह अलग बात है कि इस खोज के खरीददार नहीं मिले। प्रो. शरण को अगले प्रयोगों के लिए दो लाख रुपये चाहिए थे, लेकिन काफी कोशिशों के बाद कोई संस्थान उनकी मदद को आगे नहीं आया। भाग्य से उसी समय विश्व बैंक ने जल संरक्षण पर प्रोजेक्ट आमंत्रित किए। प्रो. शरण ने इस रिपोर्ट को भेजा तो उन्हें बीस हजार डालर का इनाम मिल गया। यही रकम प्रोजेक्ट में लगी। प्रो. शरण बताते हैं कि कोठारा और दूसरे समुद्र तटीय क्षेत्रों में आश्चर्यजनक रूप से अक्टूबर से अप्रैल तक यानी आठ महीने ओस पड़ती है। और इस अवधि का फायदा उठाया जा सकता है। इस तकनीक को इंजीनियरिंग संस्थानों और हाइड्रोलाजिस्टों को पढ़ाने की जरूरत है।

सामान्य है तरीका

ओस की बूंदों को पानी में बदलने का तरीका सामान्य है। मकान या स्कूल की छत पर सीमेंट, प्लास्टिक, एल्युमिनियम, फाइबर या टीन की ढालू चादरें डालनी होती हैं। वैसे आईआईएम ने पाली एथलीन में कुछ और मिश्रण डालकर नई चादर तैयार की है। इमारत के नीचे पाइप होते हैं जो एक बड़े ड्रम से जुड़े होते हैं। जरूरत हुई तो स्कूल आदि में इस पानी को पक्के अंडर ग्राउंड टैंकों में जमा कर लेते हैं। इसी पानी से फूलों की सिंचाई हुई तो कच्छ जैसे इलाके [सुथरी] में बिल्वपत्र, हल्दी, नींबू और सायरा में गुलमोहर फलने लगे। यह प्रयोग मामूली लागत में सौ वर्ग फीट पर भी हो सकता है। कोटेश्वर में तो जमीन पर चादर डाली गई है। प्रो. शरण के अनुसार मध्य काल में सहारा रेगिस्तान में चलने वाले बद्दू और अरब इसी तकनीक के सहारे पानी पाते थे। उनका दावा है कि रेगिस्तान में ड्यूटी करने वाले सिपाही के लिए छाते जैसी एक ऐसी किट बनाई जा सकती है जो उसके बैग में आ जाए और हर सुबह एक-डेढ़ लीटर पेयजल दे सके।
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क्या करें, अपना तो कुछ ऐसा ही भुरभुरा स्वभाव है |

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