रविवार, 20 अप्रैल 2008

अमृत जल

(वेद:-
वेद हिंदुओं का प्राचीनतम धार्मिक ग्रंथ है। यह हमारी प्राचीन भारतीय संस्कृति के मूल्यवान भंडार हैं। हमारे ऋषि-मुनियों ने युगों तक चिंतन-मनन कर इस सृष्टि के रहस्यों की जानकारी इस ग्रंथ में संग्रहित की है। बहुत से देशों के विद्वान आज भी इस प्राचीन ग्रंथ का अध्ययन कर रहे हैं।)

अमृत जल
मरु प्रदेश ऐसा क्षेत्र है जहाँ सदा जल की किल्लत रही है और वहाँ के लोग पानी के लिए तरसते रहे हैं। ऐसे ही एक प्रदेश में उत्तंक नामक मुनि रहते थे। वे बड़े तपस्वी और विद्वान थे।
एक बार द्वारिका लौटते समय भगवान श्रीकृष्ण ने उत्तंक मुनि के आश्रम में विश्राम किया और उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर इच्छित वर माँगने को कहा। उत्तंक मुनि ने वरदान माँगते हुए कहा-“भगवन! यहाँ सदा जल की कमी रहती है। इसलिए जब भी मुझे प्यास लगे तो अमृत के समान निर्मल जल मुझे पीने को मिले, ऐसा वरदान दें।” श्रीकृष्ण बोले-“ठीक है, ऐसा ही होगा।”
वरदान देने के बाद श्रीकृष्ण ने सोचा-“मैंने वर तो दे दिया लेकिन अमृत-अमृत है, वह जल के समान अर्थात अमृत जैसा जल कैसे हो सकता है?” वे शीघ्र स्वर्ग में पहुँचे और इन्द्र को सारा विवरण बताकर कहा कि उत्तंक मुनि को जब भी प्यास लगे, आप उन्हें अमृत पिलाएँ।
इन्द्र ने कहा¬-“प्रभु! वे मनुष्य हैं; उन्हें अमृत नहीं पिलाया जा सकता। लेकिन यदि आपकी आज्ञा है तो ऐसा ही होगा।” उत्तंक मुनि अधिकतर समय तपस्या में बिताते थे; उन्हें खाने-पीने का समय कम मिलता था। इसलिए वे कभी-कभी खाया-पिया करते थे।
एक दिन उन्हें प्यास लगी तो उन्होंने श्रीकृष्ण का स्मरण कर अमृत-सा जल पिलाने को कहा। तभी उन्हें एक चांडाल आता दिखाई दिया। उसके चारों ओर कुत्ते चले आ रहे थे। उसके हाथ में एक घड़ा था। चाण्डाल उत्तंक मुनि के पास आकर बोला-“मुनिवर! आपको प्यास लगी है। कृपया जल ग्रहण करें। यह जल अमृत के समान है।”
चाण्डाल की बात सुनकर मुनि क्रोधित होकर बोले-“दुष्ट! मैं एक श्रेष्ठ ब्राह्मण होकर क्या तुझ जैसे चाण्डाल के हाथ से जल ग्रहण करूँगा! तेरे हाथ जल भेजकर श्रीकृष्ण ने मेरे साथ छल किया है।”
लेकिन चाण्डाल उनसे बारंबार जल पीने का आग्रह करने लगा। इससे क्रुद्ध होकर मुनि बोले-“रुक तुच्छ प्राणी, मैं तुझे अभी शाप देता हूँ।” यह कहकर जैसे ही उत्तंक मुनि शाप देने लगे, वहाँ भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हो गए। उनके प्रकट होते ही चाण्डाल और कुत्ते अदृश्य हो गए। यह देखकर मुनि स्तब्ध रह गए।
तब श्रीकृष्ण बोले- “शांत मुनिवर! मैंने आपके साथ कोई छल नहीं किया। मेरे कहने पर स्वयं देवराज इन्द्र चाण्डाल-वेश में आपको अमृत पिलाने आए थे। मैंने सोचा था कि आप विद्वान हैं; ऊँच-नीच का भेद नहीं करेंगे। किंतु आपने अहंकारवश इन्द्र को भी नहीं पहचाना और नीच समझकर उनका तिरस्कार किया।
अहंकार के कारण ही आप अमृत नहीं पी सके। मुनिवर! जगत के सभी प्राणी अपने-आप में विशिष्ट हैं क्योंकि उन्हें उनके रूप की भाँति ही शक्ति मिली है। अतः ऊँच-नीच का भेदभाव कभी नहीं करना चाहिए, क्योंकि अपनी-अपनी जगह सभी श्रेष्ठ हैं। अब मैं आपको वरदान देता हूँ कि जब भी आपको प्यास लगेगी, मरुस्थल में मेघ आ जाएँगे और आपकी प्यास बुझाएँगे वे मेघ उत्तंक मेघ कहलाएँगे।” उत्तंक मुनि अपनी भूल पर पछताने लगे, लेकिन अब वे अमृत पीने का अवसर खो चुके थे।

(साभारः वेदों की कथाएं, डायमंड प्रकाशन, सर्वाधिकार सुरक्षित।)
साभार - http://www.josh18.com

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