सोमवार, 9 जून 2008

कहीं इतिहास ना बन जाए गंगा

फ्रेंकलिन निगम
इन दिनों उत्तराखंड अपने ही जल, जंगल और जमीन को बचाने की लड़ाई लड़ रहा है। नियति देखिए कि जिस राज्य को बने अभी कुछेक साल ही हुए हैं उसे ही अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। उत्तराखंड की रगों मे 13 छोटी-बड़ी नदियां बहती हैं। ऊंचे-ऊंचे पहाड़, नदियां और जंगल यहां आने वाले पर्यटकों के लिए हंसीन वादियां हो सकती है लेकिन उत्तराखंडियों के लिए रोजी-रोटी और घर भी हैं। गौरतलब है कि उत्तराखड को तथाकथित ऊर्जा प्रदेश बनाने का सपना देखा और दिखाया गया है। उत्तराखंड की नदियों पर 220 जल विद्युत परियोजनाएं बनाने के निर्णय लिया जा चुका है। इस सपने के तहत उत्तराखंड में जल के निजीकरण पर विचार चल रहा है और उजाZ प्रदेश और बांधों के नाम पर जमीनों का अधिग्रहण किया जा रहा है। जंगल साफ हो रहे हैं। पहाड़ों में सुरंगे खोदी जा रही है ताकि बहती नदियों को इन सुरंगों से गुजारा जाए।

अब उत्तराखंडी अपने प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के लिए अभियान-आन्दोलन पर उतर आए हैं। सही मायने में उनका आन्दोलन प्रकृति की रक्षा के लिए प्राकृतिक सुरक्षा बनाम विकास का है। नदियां, पहाड़ और पेड़ों की सुरक्षा के लिए लम्बी लम्बी पदयात्राएं और जल यात्राएं की जा रही है। गांव के युवक नुक्कड़ नाटकों और गीतों के जरीए लोगों को जागरूक करने में लगे हैं। इस सबके बीच हिन्दुत्व विचारधारा वाले लोग भी उत्तराखंड के आंदोलनों में दिखाए देने लगे है क्योंकि इस बार हिन्दुओं की आस्था का प्रतीक गंगा का भी अस्तित्व खतरे में है। वॉटर मैन माने जाने वाले और मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित राजेन्द्र सिंह मानते है कि ``गंगोत्री में बांध नहीं बनने देंगे क्योंकि ये प्रकृति के साथ साथ हमारी संस्कृति का सवाल भी है। हम विकास के नाम पर गंगा का अस्तित्व दांव पर नहीं लगा सकते´´

दुनिया में बढते तापमान, पिघलते ग्लेिशयर, और मौसम का बदलते मिजाज के नाम पर गंगा विश्व की लुप्त होने वाली 10 नदियों में से एक है। एक अनुमान के मुताबिक आज के हालातों को देखते हुए आने वाले 20 सालों में गंगा सूख जाएगी। गंगोत्री ग्लेिशयर पिछले 3500 सालों में आठ किलोमीटर पीछे खिसका जबकि पिछले 15 सालों में ये तकरीबन 210 मीटर सिकुड़ गया है। ये मानना है 15 सालों से गंगोत्री ग्लेिशयर का अध्ययन कर रहे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर स्टडी ऑफ रिजनल डेवलपमेंट विभाग के वैज्ञानिक डॉ मिलाप शर्मा का।

गंगा नदी को सुरंग, बांधों से रोककर बिजली पैदा करने की योजना है। टिहरी से धरासू तक टिहरी बांध का जलाशय ही नज़र आता है, पानी रूका हुआ और हरा है यानि यहां गंगा मर चुकी है। अब इसके आगे गंगा को धरासू से गंगोत्री तक की दूरी 125 किमी है अब यहां भी गंगा के रास्ते का बदलकर सुरंगों और बांधों से होकर गुजरना होगा। गगा को इस तरह बाधित करने से उसके सूख जाने की संभावनाएं लगातार बढ़ रही हैं। धरासू से गंगोत्री तक बनने वाली परियोजनाओं में मनेरी भाली प्रथम, मनेरी भाली द्वितीय, पाला मनेरी, लोहारी नागपाला, भैरो घाटी प्रथम और द्वितीय शामिल है। इन परियोजनाओं में भैरो घाटी प्रथम और द्वितीय गंगोत्री में ही बनने वाली है। ये सब विकास और बिजली उत्पादन के नाम पर किया जा रहा है।

विकास के नाम पर इस बार जब गंगा का अस्तित्व ही दाव पर लगा तो सारे आस्थावादी और हिन्दुवादी इकट्ठा होने लगे हैं। उनकी ये आस्था प्रकृति के प्रति ना होकर संस्कृति और पौराणिक गंगा के प्रति है। वैज्ञानिक और इंजीनियर डॉण् जी डी अग्रवाल गंगा के प्रति अपनी श्रद्धा के चलते नदी के अस्तित्व की लड़ाई के लिए 13 जून को अमरण अनशन पर बैठने जा रहे हैं। उनके शब्दों में ``लोगों को रोटी-रोजगार मिले या ना मिले, मुझे फर्क नहीं पडता। मेरी लड़ाई सिर्फ गंगा जी के अस्तित्व की लड़ायी है।´´ गंगा के अस्तित्व को बचाने का डॉ अग्रवाल का अभियान प्रकृति की रक्षा की बजाय आस्था और संस्कृति से इस कद्र प्रभावित है कि उनकी आस्था के आगे जल, ज़मीन जंगल कोई मायने नहीं रखते। वे इसे एक नदी की लडायी ना मानकर मां के जीवन के लिए संघषZ मानते हैं। इसी तरह हिन्दुत्ववादी विचारधारा और उत्तराखंड के पर्वतों में अपने अपने आश्रम चला रहे साधू संत भी इस आंन्दोलन में कूदने लगे हैं। हैरानी की बात ये है प्रकृति की सुध किसी को नहीं, सिर्फ गंगा के ही प्रति आस्था और सस्कृति के चलते इस आंदोलन में भाग ले रहे हैं। प्रकृति की सुरक्षा के लिए किए जा रहे अभियानों पर कुछ हिन्दुत्ववादी संगठनों की नज़र पड़ जाने से कहीं ये आंन्दोलन धार्मिक मुददा ना बन कर रह जाए।

हिमालय के मध्य भाग में गंगा की दो धाराएं जो विपरीत दिशाओं में अलकनन्दा और भागीरथी के नाम से बहती हुई देवप्रयाग स्थान पर एक दूसरे से मिल जाती हैं और यही से ये गंगा बनती है। गोमुख से निकलने के बाद भागीरथी भेजवासा, चीड़वासा, गंगोत्री से होते हुए भैरोघाटी पहुंचती है। यहां जाड़गंगा नामक सरिता और उत्तर काशी से आगे गाड़ गधेरे इसमें मिलते हैं। बहुत जल्द गंगा हमारी आंखों से ओझल हो जाएगी और सुरंगो और बांधो बंधकर बहेगी।

विकास के नाम पर गंगा का जीवन दांव पर नहीं लगा है बल्कि दूसरी नदियां भी अपनी मौत का इंतजार कर रही है। कुमाउंं विश्वविद्यालय के जल वैज्ञानिक डॉ जे एस रावत की कोसी नदी पर तैयार रिपोर्ट के मुताबिक यही स्थिति कुमाउ की लगभग सभी नदियों की है। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में कोसी नदी की समस्या को उजागर किया है। वैज्ञानिक डॉ जे एस रावत मुताबिक 1994 में कोसी नदी का बहाव 994 लीटर प्रति सेकेण्ड था और 2003 तक यह 65 लीटर प्रति सेकेण्ड हो गया। यही नहीं कोसी नदी का उद्गमस्थल पिनाथ पहाड़ पर था लेकिन अब ये खिसकर 25 किलोमीटर दूर सोमेश्वर पहाड पर आ गया है।

भागीरथी नदी घाटी के जलग्रहण ़क्षेत्र में लोहारी नामगपाला और पाला मनेरी परियोजनाओं से होने वाला नुकसान सबसे ज्यादा पाला गांव के लोगों को झेलना होगा। हमने यहां को दौरा किया। जलविद्युत परियोजना के कारण पाला गांव में छोटे बड़े भूस्खलन हो रहे हैं। दर्जनों स्कूलो और घरों में दरारे पड़ चुकी हैं। सुरंगों के निर्माण के लिए की जाने वाली ब्लािस्टंग से गांव की ज़मीन कांप उठती है और सड़कों टूट जाती है। उत्तराखंड को उर्जा प्रदेश बनाने के सरकार के जो सपने थे उसके आधार पर नदियों पर बांध बनाने के तरीक बदल गए हैं। अब पहाडों के दिलों में सुरंगे खोदी जा रही है। जिससे कृषि भूमि तो बरबाद हो ही रही है, सबसे खतरनाक कि इन सुरगों पर गांव बसे हैं। जो देर सबेर धस सकते हैं। अलकनन्दा नदी के प्रयाग पर बनी विष्णुप्रयाग बांध परियोजना से चाईं गांव तबाह हुआ। धौली गंगा परियोजना से धारचुला का बंलातोक, भागीरथी पर निर्मित् मनेरी भाली-1 से दर्जनों गांव तबाह हो चुके हैं। टिहरी शहर तो जलसमाधि पहले ही ले चुका है।

जंगलों से राई, कैल, मुरेंडा, देवदार, मौरू, बुरास, फल्याट जैसी पेड़ों की प्रजाति खत्म हो रही हैं। पाला गंाव के पास टकनौर रेंज के तहत स्वारी और पिटारा में राष्ट्रीय राजमार्ग के चौड़ा करने के नाम पर 1200 से अधिक की बलि चढ़ा दी गयी। विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों को बेददीZ से कत्ल किया जाना कहां तक उचित है। रोजगार के नाम पर भी लोगों को आश्वासन मिलता रहा है। स्थानीय लोगों को ठेके पर काम दिया जाता है। हैरानी की बात ये कि उत्तराखंड जलविद्युत निगम के पास स्थानीय लोगों को स्थायी रोजगार देने की कोई योजना नहीं हैं। उत्तराखंड को नदी बचाओं 2008 के रूप में मनाया जा रहा है। इस प्रदेश में यमुना, अलकनन्दा, मंदाकनी, सरयू, पिण्डर, कोसी जलकुर, काली छोटी बड़ी नदियां अविरल बहा करती थी। इन तमाम नदियों पर बांध बनाकर अनुमानित 25 हजार मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य है। जिससे 22 लाख लोग प्रभावित होंगे। राज्य की कुल आबादी ही 84 लाख हैं। राज्य में 16 हजार नहरे हैं यदि इन नहरों को नियमित करके टरबाईन लगा कर 30 हजार मेगावाट बिजली प्राप्त की जा सकती हैं और सिंचाई के लिए पानी मिलेगा सो अलग।

गुलाम भारत में भी अंग्रेजों ने गंगा नदी को बांधने की कोिशश की थी। लेकिन मदन मोहन मालवीय इसके विरूद्ध आंदोलन छेड़ दिया। जिसके आगे अंग्रेजों को झुकना पडा और अंग्रेजों के साथ समझौता हुआ। समझौते के तहत दो बाते तय हुई। पहली की गंगा की अविरल धारा को कभी भी नहीं रोका जाएगा(अनुच्छेद 32, पैरा 2) दूसरी की हिन्दु समाज से परामर्श किए बिना ऐसा कदम भविष्य में दोबारा नही उठाया जाएगा। यह समझौता आज भी संविधान की धारा 363 के अंतर्गत सुरक्षित है। 1916 के समझौता और संविधान की धारा 363 का उल्लंघन किया जा रहा है। ये सब विकास के झूठे सपने दिखा कर किया जा रहा है। बहुराट्रीय कम्पनियों और निजी कम्पनियों से समझौता के चलते उत्तराखण्ड को पावर हाउस बनाने के लिए उर्जा प्रदेश का सपना दिखाया जा रहा है। अफसोस ये है कि इन परियोजनाओं के कारण जल जमीन और जंगल खत्म हो रहे हैं। अगर हालात यही रहे तो सनकी वैज्ञानिकों की विकास के नाम पर की जा रही नई नई खोजे एक दिन भस्मासूर बन जाएगी। हमें संभल जाना चाहिए क्योंकि प्रकृति हमें अतिभोग की इजाजत नहीं देती।
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