बुधवार, 24 सितंबर 2008

शिवनाथ के बारे मे…..

कुछ वर्ष पहले शिवनाथ नदी बहुत चर्चा में था। चर्चा मे तब आया जब एक प्रायवेट कंस्ट्रक्शन कम्पनी (रेडियस वाटर कम्पनी), जिनके मालिक राजनान्दगाँव के कैलाश सोनी है को सरकार ने नदी का 23.6 कि. मी. का क्षेत्र 22 वर्ष के लिये लीज़ पर दे दिया है और नदी के पानी के उपयोग को लेकर रेडियस वाटर कम्पनी के कर्मचारियों और बान्ध के किनारे के मोहलाई ग़ाँव के लोगो के बीच झड़प हुई। गाँव वालो के मुताबिक पहले तो रेडियस वाटर कम्पनी और दुर्ग कलेक्टरेट की ओर से पानी का उपयोग नही करने के लिये नोटिस मिला और बाद मे कंपनी के कर्मचारी नदी से लगे पम्प को निकालने गाँव पहुचे। मछुआरों के जाल भी काटे जाने लगे। ग्रामिणो के आक्रोशित होने और बाद मे स्थानीय संगठनों के सहयोग और हस्तक्षेप होने के बाद यह मसला पूरी तरह से शांत हो गया।

वर्तमान मे बान्ध के ऊपर की ओर बने गाँव महमरा और मोहलई के लोग नदी के पानी का भरपूर उपयोग कर रहे है। रेडियस वाटर कम्पनी भी किसी को पानी लेने से मना नही कर रही है। किसी को कोई तकलीफ नही है और किसी प्रकार का कोई आन्दोलन नही हो रहा है। लेकिन कल को यह सब फिर हो भी सकता है इसका डर तो अभी भी गांव वालो को है।

छत्तीसगढ़ अपने परम्परागत जल संग्रहण के लिये भी जाना जाता है जैसे छोटे-बड़े तालाब, डबरी, कुआं आदि। यहाँ के गावों में बहुत से छोटे बड़े तालाब देखे जा सकते है यहाँ तक कि कई गाँव मे तो 10 से 15 तालाब भी है। जिसका उपयोग खेती के लिये, पशु के लिये, नहाने धोने के लिये और मछली पालन के लिये किया जाता है। लेकिन शिवनाथ नदी के किनारे के इन गावों में एक या दो ही तालाब है। कहीं-कहीं कुएँ भी है। गाँव वाले पूरी तरह से नदी पर निर्भर है। इसके अलावा यहाँ के आसपास के लगभग हर गाँव मे 60 से ज्यादा बड़े एवं छोटे मोटर पम्प और नलकूप है, खेती के लिये और पीने के लिये। बान्ध बन जाने से महमरा और मोहलाई जैसे गाँव के लोग इस गर्मी मे भी भरपूर खेती किसानी कर रहे है और दो फसल ले रहे है, यही नही नदी के किनारे किनारे निजी स्तर पर भारी मात्रा मे बड़े एवं छोटॆ पैमाने पर तरबूज, खरबूज, पपीता, साग-भाजी की भी पैदावारी हो रही है।

लेकिन नीचे के गाँव की हालत ऎसी नही है मलौद और बेलौदी जैसे गाँव मे कुछ वर्ष पूर्व जहाँ बड़ी मात्रा मे अमरूद के बगीचे थे वे सब अब धीरे धीरे सुख रहे है। बेलौदी के सरपंच पति ने बतलाया कि यह अमरूद गाँव वालो के लिये आय का एक बहुत बड़ा स्त्रोत था। यहाँ के अमरूद आस पास के राज्यो मे भी जाते थे। उन्होने इस बात से इन्कार नही किया कि जल स्तर में आई गिरावट इसका एक प्रमुख कारण हो सकता है।

ऎसे ही नदी के किनारे के एक गाँव कोटनी में एक रपटा का निर्माण हो रहा है लाखों की लागत से जो नगपुरा को सीधे कोटनी से जोड़ेगी और फिर आगे दुर्ग तक जायेगी। यहाँ मेरी मुलाकात सिविल इंजिनीयर से हुई जो पंचायत मे बैठे हिसाब किताब कर रहे थे। शिवनाथ नदी पर उनका कहना था “पानी को बांध देने से गाँव को फायदा ही हुआ है। पहले तो पानी आगे बह जाता था लेकिन अब यहाँ आस पास के किसान बढ़िया से खेती कर रहे है। गर्मी मे तो नदी वैसे भी सूख जाती थी। सरकार की योजना है की जगह जगह चेक डेम बने, तो यह तो अच्छी ही बात है।“ लेकिन उनके पास इस बात का उत्तर नही था कि इन गावों मे तो ठीक है लेकिन अगर इसी तरह कुछ खास जगहो पर ही पानी का पूरा दोहन होता रहा तो उन गावों का क्या होगा जो नीचे की ओर है। साथ ही इस बात पर भी असमंजस्य की स्थिती बनी हुई है कि सरकार तो उस 23.5 कि. मी. के अन्दर के हिस्सों पर भी ऎनीकेट और रपटा बना रही जो लीज़ पर दी जा चुकी है। कल को अगर कम्पनी और सरकार के बीच तनाव की स्थिती आती है तब क्या होगा?

नदी के किनारे छोटे बड़े बहुत से कई ईट भट्टे भी है। कोटनी, पीपरछेड़ी गाँव के आस पास ईट भट्टे है। इनके कारण बड़ी तेजी के साथ नदी किनारे मिट्टी का कटाव हो रहा है। निर्माण क्षेत्र के लिये रेत का भी उत्खनन बड़ी मात्रा मे हो रहा है। इससे काफी बड़े हिस्से मे नदी के दोनो तरफ समतल होना शुरू हो गया है। खेती-बाड़ी के लिये भी किसान, नदी के दोनो तरफ समतल कर रहे है। इससे पंचायत, अधिकारी और स्थायी नेताओं को आंशिक लाभ जरूर हो रहा होगा लेकिन आने वाले समय में नदी का क्या होगा इसकी चिंता शायद किसी को नही है।

साथ ही रसमड़ा मे उद्द्योगपतियों द्वारा नदी के आस पास के पूरे खाली सरकारी और खेती जमीन को खरीद लेना है। इससे रसमड़ा के लोगो का नदी के पानी का उपयोग करना तो दूर, नदी तक पहुँचा भी नही जा सकता। पूरे जगह को घेर लिया गया है। रसमड़ा के ग्रामीण खेत के बिक जाने से खेती भी नही कर पा रहे है, पर्याप्त उद्योग नही लगने से रोजगार भी नही मिल रहा है और स्पंज आयरन उद्योग के कारण प्रदुषण भी स्थानीय लोगो के लिये एक बहुत बड़ी समस्या है।

इन गाँवों मे केवट, निषाद, ढीमर आदि मछुआरे जाति के लोग भी बहुत है और कुछ परिवार तो पूरी तरह से आजिवीका के लिए नदी पर ही निर्भर है। लेकिन अब धीरे धीरे नदी के पानी मे कमी आने और पर्याप्त मछली नही मिलने के कारण अब ये लोग मेहनत मजदूरी के लिये गाँव और ग़ाँव के बाहर अन्य शहरों में जाने लगे है।

नगपुरा जाते समय भरी दोपहरी मे मेरी मुलाकात नगपुरा के एक मछुआरे विष्णु ढीमर (आयु करीब 60 वर्ष) से हुई जो अपने चौथे और सबसे छोटे बेटे (आयु 13-14 वर्ष) के साथ बहुत दूर किसी पोखर
से मछली मार कर आ रहे थे। गर्मी के दिनों मे नदी मे पानी नही होने के कारण उन्हे मछली पकड़ने के लिये दूर दूर जाना पड़ता है। वे सुबह सुबह निकले थे और दोपहर एक बजे के आस पास घर वापस लौट रहे थे। आज किस्मत से उन्हे केवल एक भुंड़ा मछली ही मिल पाई। वे याद करते है कि वर्षो पहले शिवनाथ मे बहुत पानी हुआ करता था और बहुत प्रकार की मछलियाँ मिलती भी थी लेकिन अब तो “जलगा”, “सवार” जैसी मछलियाँ नही मिलती, विलुप्त हो गयी है। इनके परिवार मे इनके अलावा और कोई भी मछ्ली नही पकड़ता। घर के बाकी सदस्य (महिलाएँ भी) मेहनत मजदूरी करने है।

दुसरी बार फिर पीपरछेड़ी के पास फिर इसी मछुआरे से मुलाकात हुई इस बार वहाँ उनके साथ सात-आठ मछुआरे और थे और सभी नगपुरा के थे। एक मछुआरे को वहाँ एक कछुआ भी मिला।

इस नदी को लीज़ मे दिये जाने की चिंता तो सभी को है लेकिन इसकी चिंता करने वाले तमाम लोगो और यहाँ तक कि पर्यावरणविदों से यदि यह भी पूछा जाये कि कितने और किस प्रजाति की मछलियाँ और अन्य जलचर प्राणी इस नदी मे है और कितनी विलुप्त हो गयी है तो शायद ही संतोषजनक उत्तर मिलें।

स्थिती आज शायद गम्भीर नही है लेकिन अगर यह लगातार चलता रहा तो आने वाले समय में जरूर पानी की बहुत बड़ी समस्या उत्पन्न हो जायेगी। आश्चर्य की बात है कि शिवनाथ नदी जैसा हाल छत्तीसगढ़ के बहुत सी नदियों का है लेकिन उस पर चिंता और बात नही हो रही है। शायद लाभ की जुंगाईश न हो।

शिवनाथ नदी देश का पहला पानी के निजीकरण का और हर प्रकार के दोहन का उदाहरण है इसके लिये कैलाश सोनी से लेकर ग्रामीणों और सम्बन्धित तमाम फिक्रमन्द लोगो को इस पर गौरांन्वित होने कि जरूरत नही है और समय समय पर इस मुद्दे को जिन्दा रखना शायद उतना जरूरी नही है, जितना कि शिवनाथ नदी को मरने से बचाने की है।

तेजेन्द्र ताम्रकार

साभार - जोहार

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