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गुरुवार, 8 मई 2008

और खोलते हैं जलस्रोतों के राज- घोंघें

विभिन्न जलाशयों में रहने वाल सीधे सादे और सुस्त प्रकृति के तरह-तरह की आकृति के नन्हें जीव घोंघें पशुओं और मनुष्यों में कई प्रकार की जानलेवा बीमारियां फैलाते है वहीं इनकी उपस्थिति से जलाशयों की प्रकृति व जल की गुणवत्ता का आंकलन करने में मदद मिलती है। किसी क्षेत्र में खुदाई के दौरान यदि घोंघों के कवच प्राप्त हो तो शर्तिया रूप से यह कहा जा सकता है कि वहां कालान्तर में जलस्रोत होगा, इससे यह भी पता चलता है कि वहां पर किसी समय में कल-कल करती कोई सरीता होगी अथवा कोई छोटा गंदले पानी का तालाब या शुद्घ पानी की बडी सी झील।
यह रहस्योद्घाटन डूंगरपुर निवासी राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त ख्यातनाम वैज्ञानिक डॉ.शांतिलाल चौबीसा ने अपने नवीनतम शोध में किया है। संप्रति सिरोही के राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय में प्राणीशास्त्र के विभागाध्यक्ष डॉ.चौबीसा ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा स्वीकृत शोध परियोजना अन्तर्गत अरावली पहाडियों में बसे मेवाड-वागड क्षेत्र के हर प्रकार के छोटे-बडे जलाशय एवं बहते जलस्रोत में रहने वाले विभिन्न प्रजातियों के घोंघों के व्यवहार तथा इनसे निकले तरह-तरह के रोगकारी ट्रीमैटोड परजीवियों के लार्वाओं पर अनुसंधान कर अपने निष्कर्षों को जनसामान्य के हितार्थ उद्घाटित किया है।
अपनी शोध परियोजना से निस्सृत रहस्यों से साक्षात कराते हुए उन्हने बताया कि कोमल शरीर के काले, भूरे व हरे रंग के खूबसुरत सर्पिले आकार के केल्सियम कॉर्बोनेट से बने कठोर आवरण में ढके जलीय जन्तु घोंघे अथवा स्नेल्स जलाशयों में अक्सर तैरते या पैंदे में रेंगते सहज दृष्ट होते हैं। ये दिखने में भले ही सुस्त लगते हो परंतु ये पालतू या जंगली जानवरों को ही नहीं अपितु मनुष्य में भी घातक ट्रीमेटोडिऐसिस नामक घातक बीमारियों यथा फेसिओलियेसिस, सिस्टोसोमेऐसिस, एम्फीस्टोमियेसिस आदि के लिए जिम्मेदार होते हैं। ये बीमारियां इन प्राणियों के शरीर में पाये जाने वाले द्विपरपोषी ट्रिमेटोड परजीवियों द्वारा पनपती हैं परंतु इनका जीवन चक्र मध्यस्थ परपोषीय माने जाने वाले इन घोंघों द्वारा- ही परिपूर्ण होता है। ये घोंघे ही इन परजीवी रोगों के संवाहक का कार्य करते हैं।
उन्होंने बताया कि अरावली क्षेत्र के विभिन्न जलाशयों में दो दशक पूर्व इन घोंघों की जैव-विविधता का बाहुल्य था परंतु साल-दर-साल सूखा पडने से इनकी सत्रह में से तीन प्रजातियां विलुप्त हो गई है वहीं दो और प्रजातियां थिअरा लिनिएटा और थिअरा स्काब्रा वागड क्षेत्र में प्राप्त हुई हैं। लिमि*ना परिवार की छः, प्लेनोर्बिस की दो, मेलेनाईड की चार व विविपेरा की दो प्रजातियां आज भी मौजूद है जो पूर्व में प्रकाशित हो चुकी हैं। ये प्रजातियां पशुओं व मानवों में थैसिओलिएसिस, जलीय कशेरूकी जन्तुओं में ईकाईनोस्टोमिएसिस , पशुओं में एम्फी स्टोमिएसिस तथा मनुष्यों व जानवरों में सिस्टो सोमिएसिस नामक घातक बीमारियां फैलाती है जो कभी-कभी महामारी के रूप में प्रकट होती हैं। इसलिए अनेक अफ्रिकी और एशियाई देशों में घोंघों की प्रजाति व इनकी आबादी के आधार पर पूर्वानुमान लगा लिया जाता है कि कौनसी ट्रीमेटोडिएसिस बीमारी होगी व फैलेगी। इन देशों की सरकारें घोंघों को समाप्त कराने की परियोजनाएं भी चलाती है जिससे बीमारियां नियंत्रित हो सकें परंतु दूसरी ओर इनकों समाप्त करने से प्राकृतिक संतुलन भी बुरी तरह प्रभावित होता है क्योंकि इन जलीय जीवों की पारिस्थितिकी तंत्र में भोजन श्रृंखला के रूप में अहम भूमिका है।
डॉ.चौबीसा ने बताया कि भिन्न भिन्न प्रजाति के ये घोंघे अमुक प्रजाति के रोगकारक ट्रीमेटोड परजीवी के ही सरकेरिया लार्वा पानी में छोडते हैं जिनका एक निश्चित समय और मौसम होता है। अधिकांश घोंघों की प्रजातियां सुबह में अत्यधिक संख्या में सरकेरिया लार्वा पानी में छोडती है, इस संक्रमित जल को पीने से मनुष्य व जानवर इन परजीवियों से संक्रमित हो जाते है तथा इनके विभिन्न अंगों में ये परजीवी तरह-तरह के ट्रिमेटोडिएसिस रोग उत्पन्न करते हैं।
इस संबंध में डॉ.चौबीसा ने प्रत्येक मौसम में घोंघों से निकले लार्वों का भी विस्तृत अध्ययन किया। इनके अनुसार मानसून के अन्त में एम्फिस्टोम सरकेरिया सर्दी में इकाईनोस्टोम व जिम*ोसेफेलस सरकेरिया तथा ग्रीष्मकाल में फरकोसरकेरिया लार्वा कुछ विशेष जाति के घोंघों द्वारा पानी में छोडे जाते हैं। इस कारण अलग-अलग मौसम में विभिन्न प्रकार की बीमारियों का संक्रमण होता है लेकिन दुर्भाग्यवश न तो इन क्षेत्र के पशुपालकों न ही पशु अधिकांश चिकित्सकों को इन बीमारियों के मौसमी ज्ञान की समुचित जानकारियां हैं। ये बीमारियां उन सभी क्षेत्रों में पलती और फैलती है जहां के जलाशयों में इस प्रकार के घोंघों की प्रजातियां पाई जाती हैं।
डॉ.चौबीसा ने बताया कि थोडी सी सावधानी बरतने पर इन रोगों के संक्रमण से पशुओं को बचाया जा सकता है। इसके लिए- एकत्र मानसूनी जल जो घोंघे युक्त हो पशुओं को नहीं पिलाना चाहिए, जहां तक संभव हो भूमिगत अथवा बडे जलाशयों का स्वच्छ पानी ही पिलाना चाहिए। इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि पशुओं का सुबह के समय तालाबों का पानी नहीं पिलाना चाहिए क्योंकि इस समय घोंघे अधिक संख्या में संक्रमित सरकेरिया लार्वा छोडते हैं।-
डॉ.चौबीसा के अनुसार वागड क्षेत्र में इन घोंघों की जैव विविधता मेवाड क्षेत्र से अधिक पाई गई हैं। वागड में शोध के दौरान दो और प्रजातियों के होने के प्रमाण मिले है वहीं एक नई प्र*जाति भी वागड की आबोहवा में पाई गई हैं जिसकी पहचान के लिए जूलोजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया को भेज दिया गया है। वागड क्षेत्र में संगम जैसा जलीय पारिस्थितिकी तंत्र भी मौजूद है जो कि शोध की दृष्टि से नया विषय हो सकता है। मानव व पशुओं में घोंघों द्वारा फैलाये जाने वाले परजीवी रोगों पर अनुसंधान एवं उन पर नियंत्रण की दृष्टि से डॉ. चौबीसा द्वारा किया गया शोध मील का पत्थर साबित होगा।

लुप्त जलाशय के राज भी खोलते है घोंघें ----- घोंघों के संबंध में एक आश्चर्यजनक तथ्य को उद्घाटित करते हुए डॉ.चौबीसा बताते है कि घोंघों की प्रजाति की प्राप्ति से किसी स्थान पर- लुप्त अथवा सूखे जलस्रोतों के बारे में जानकारी प्राप्त हो सकती है। वे बताते है कि किसी स्थान पर मेकेनिडी प्रजाति के घोंघों के कवच प्राप्त हो तो वहां पर बहते हुए स्वच्छ जल अर्थात नदी- या किसी झरने की अवस्थिति का अनुमान किया जा सकता है। इसी प्रकार किसी स्थान पर यदि विविपेराइडी तथा लिमि*ऐडी प्रजाति के घोंघों के कवच प्राप्त हो तो उस स्थान पर स्वच्छ परंतु स्थित जल अर्थात झील व बडे तालाब होने का अनुमान लगाया जा सकता है। इसके साथ ही किसी स्थान पर लि. ल्यूटेला प्रजाति के घोंघे पाए जावें तो वह प्रदूषित जलस्रोत के होने का प्रमाण होता है। इस आधार पर भूतल में पूर्व में नदी अथवा झील इस तथ्य का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है।-

साभार / स्‍त्रोत - http://www.pressnote.in/readnews.php?id=14541