शुक्रवार, 18 अप्रैल 2008

ई-कचरे का संकट

अपने देश में पहले ही क्या कम कचरा था, जो ई-कचरे की एक और समस्या आ खड़ी हुई है! ताजा रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2012 तक देश में आठ लाख टन इलेक्ट्रॉनिक कचरा जमा होने लगेगा। हम जैसे-जैसे नई प्रौद्योगिकी और नई अर्थव्यवस्था पर निर्भर होते जाएंगे, इसके पहाड़ भी सुरसा के मुंह की तरह फैलते जाएंगे। सोचिए कि जब तक मोबाइल फोन नहीं थे, लोगों की इतनी बातें कहां थीं? लैंडलाइन फोन ही सीमित घरों में हुआ करते थे, उसमें भी बात करने के मैनर्स सीखने पड़ते थे। दस साल पहले तक हम कंप्यूटर, इंटरनेट, ईमेल, एसएमएस को जानते तक नहीं थे। जब इस देश में कंप्यूटर आया, तो बहुत बड़ी बहस खड़ी हुई कि यह मजदूर के हाथ की रोजी छीन लेगा। लेकिन क्या आज हम, कम से कम शहरी मध्य वर्ग यह सोच सकते हैं कि इसके बिना भी जीवन है? इसी तरह 15 साल पहले हम बोतल में डेरी का दूध लिया करते थे। रोज खाली बोतल ले जाते थे, और भरी बोतल ले आते थे। जबकि आज पॉली पैक में दूध लाते हैं। प्लास्टिक और पॉलीथीन ने जिस तरह से हमारे जीवन पर कब्जा कर लिया है, क्या उससे हमें मुक्ति मिल सकती है? यदि नहीं, तो समाधान क्या है? हम अच्छी तरह जानते हैं कि पॉलीथीन के पहाड़ जमा हो रहे हैं। वह हमारी पृथ्वी केलिए कितना हानिकारक है, यह हम नहीं जानते। जानते भी हैं, तो सुविधा के चलते आंखें बंद किए हुए हैं। रोज सुबह हम स्वीपर को पॉलीथीन के कचरे को जलाकर आग तापते देखते हैं। वह नहीं जानता कि इससे जो डायक्सीन या हाइड्रोजन सायनाइड नाम की गैसें निकलती हैं, वे कैंसर का रूप धारण करके उसकी जान भी ले सकती हैं। वह हमारी धरती की उर्वरा शक्ति को नष्ट कर देता है। लेकिन हमारी सरकारों की नीतियां ऐसी हैं कि प्लास्टिक या पॉलीथीन का इस्तेमाल बढ़ता ही जाता है। यही हाल ई-वेस्ट यानी इलेक्ट्रॉनिक कचरे का है। चूंकि सूचना और संचार प्रौद्योगिकी क्षेत्र का विकास लगभग 30 फीसदी की दर से हो रहा है, इसलिए इससे संबंधित कचरे का बढ़ना लाजिमी है। 2007 में हमने तीन लाख 32 हजार टन ई-कचरा पैदा किया। जो 2012 तक आठ लाख टन हो जाएगा। मोबाइल फोन, फ्लूरोसेंट लैंप, प्रिंटर के कार्टि्रज, सीडी, फ्लॉपी डिस्क, जैसी चीजों का इस्तेमाल बढ़ना ही है। इनसे जो कचरा बनता है, उसे हम कहां फेंकें? सरकार के पास ई-कचरे को लेकर कोई नीति नहीं है। न कोई कानून है। आम तौर पर जहां यह कचरा ज्यादा जमा होता है, अर्थात कंपनियों, सरकारी-गैर सरकारी दफ्तरों में, तमाम तरह के बचे-खुचे माल और कचरे को एक जगह डंप करने और एकमुश्त नीलाम करने की प्रथा है। कचरे को उठाने वाले कबाड़ी के पास इसका कोई ज्ञान नहीं होता कि उसे कैसे हैंडल किया जाए। यानी यह एक विकराल समस्या बन गई है, जिसके बारे में गंभीरता केसाथ सोचना होगा।

1 टिप्पणी:

अनूप शुक्ल ने कहा…

जायज चिंताये हैं!