रविवार, 27 अप्रैल 2008

नासमझी से उत्पन्न त्रासदी

Dr.Rampratap Gupta

किसी भी मानव आबादी के अस्तित्व को बनाए रखने में नदियां महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। यही कारण है कि आदि काल से ही मानव सभ्यता का केंद्र नदी घाटियां ही रही हैं। उन पर नाना प्रकार के जलीय जीवों, मछलियों, जलीय वनस्पतियों, सूक्ष्म जीवों का अस्तित्व निर्भर रहा है। जिन क्षेत्रों में से वे बहकर जाती हैं, उन क्षेत्रों के भूजल भण्डारों का पुनर्भरण करती है, साथ ही ग्रीष्म काल में उनसे पोषण पाकर स्वयं भी बारहमासी बनती हैं। वर्षाकाल में बाढ़ के समय अपने साथ लाखों टन उपजाऊ मिट्टी लाती हैं और अपने दोनों ओर के क्षेत्र में उसे बिछाकर उसे उपजाऊ बनाती हैं। नदियों के कारण ही मिट्टी और पानी में लवणीय पदाथों का अनुपात अधिक नहीं हो पाता है, वे इनके लवणों को बहाकर समुद्र में ले जाती हैं। वे ही वर्षा के पानी के निकास का माध्यम भी होती हैं और भूमि को दलदली होने से बचाती हैं। वे अनादि काल से परिवहन की सबसे ऊर्जाक्षम माध्यम भी रही हैं। साथ ही वे हमारी अधिकांश धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियों का केंद्र भी रही है। नदियों की इन्हीं भूमिकाओं से अभिभूत हम उनकी पूजा करते रहे हैं, उन्हें पवित्र और मुक्तिदायनी मानते रहे हैं, उन्हें साुलाम बनाए रखने के लिए उनमें पानी की आवक को निर्बाध बनाए रखते हैं, उन्हें प्रदूषण से मुक्त रखने की व्यवस्था करते रहे हैं। नदियों की जिस जीवनदायी भूमिका को हमारे पूर्वज अच्छी तरह समझते थे, वैज्ञानिक प्रगति के गर्व से चूर आधुनिक मानव उनका अनदेखा कर उन्हें केवल अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति का माध्यम मान बैठा है। उनकी जीवनदायी भूमिका को विस्मृत कर जब वह सिर्फ उनमें बहने वाले पानी को देखता है, तो उसे लगता है कि यह तो व्यर्थ ही बरबाद हो रहा है। इस पानी को उसे अपनी बढ़ती आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उपयोग करना चाहिए। इसी हेतु उसने इन पर बांध बनाना शुरु किए। भारत को ही लें, तो पिछले 200 वर्षों में 5000 से अधिक बांध बना लिए गए हैं। बांधों के अध्येता मेक्कली के अनुसार दुनिया में बांधों के माध्यम 10,000 घन कि.मी. मीटर पानी संग्रहित किया जा रहा है। अगर किसी कारण से किसी नदी में बहने वाले पानी को किसी एक बांध के माध्यम से संग्रहित कर पाना संभव नहीं होता तो उस पर तथा उसकी सहायक नदियों पर दर्जनों बांध बना लिए जाते हैं। हम भूल गए हैं कि किसी नदी अथवा उसकी सहायक नदियों पर बांध बनाने का अर्थ उसके निचले हिस्से को या तो पूर्णतया सुखा देना है या उसे छोटे नाले में परिवर्तित कर देना है। ये बांध नदी के निचले भाग के लिए मृत्यु दण्ड का फरमान लेकर आते हैं। नदी के निचले भाग में पानी के बहाव में कमी या समाप्ति के अनेक दूरगामी दुष्प्रभाव होते हैं, उस भाग के भूजल पुनर्भरण में बाधा पहुंचती है, उसमें रहने वाले जलचरों, वनस्पतियों, सूक्ष्म जीवों आदि का जीवन संकट में पड़ जाता है। नदी पर बांध बनाने के साथ ही बांध निर्माताओं को उसमें पानी की आवक को अक्षुण्ण बनाए रखने की चिंता सताने लगती है। इस हेतु जल चक्र को न समझते हुए वे नदी के ऊपरी भाग में वर्षा के तथा सहायक नदियों के पानी के दोहन पर भी अंकुश लगा देते हैं जिससे किसान व अन्य लोग भूजल के अतिदोहन के लिए बाध्य होकर उन्हें भी रीता कर देते हैं। इस तरह बांध के ऊपरी क्षेत्र के लोग सहायक नदियों और वर्षा के पानी से तो वंचित होते ही हैं, कुछ वर्ष बाद भूजल भण्डार खाली हो जाने पर उससे भी वंचित हो जाते हैं। साथ ही इससे पूरे क्षेत्र में इकॉलॉजिकल प्रतिकूलताएं उत्पन्न हो जाती हैं। सन् 2002 में नई राष्ट्रीय जलनीति की घोषणा की गई थी। उस समय यह अपेक्षा थी कि अब तक के अनुभवों से सरकार कुछ सबक लेगी और अपनी जलनीति में नदियों के महत्व को रेखांकित करेगी। परंतु हम पाते हैं कि जलनीति में नदियों के पानी के दोहन के मामले में इकालॉजी की रक्षा और नदियों में पानी पर्याप्त मात्रा बनाए रखने को पेयजल, सिंचाई और पनबिजली उत्पादन के बाद स्थान दिया गया है। अर्थ यह हुआ कि सरकार सिंचाई और पनबिजली आदि के लिए बांध बनाना जारी रखेगी। 11वीं पंचवर्षीय योजना में यह बात स्पष्ट रूप से उभरती है कि हमारी जलनीति अपनी अल्पकालिक दृष्टि पर ही आधारित रहेगी और बांध आदि के निर्माण से नदियों तथा उनकी इकॉलॉजी पर पड़ने वाले प्रभावों की उपेक्षा होती रहेगी। जलनीति में कुछ उपयोगी धाराएं अवश्य शामिल की गई थीं। जैसे नदियों में न्यूनतम प्रवाह को बनाए रखना और उनकी, साथ ही तालाबों, झीलों आदि की रक्षा करना, उन्हें अतिक्रमण से बचाना आदि। परंतु हम देखते हैं कि उपयुक्त मापदण्डों के अभाव में नदियों के विनाश की प्रक्रिया यथावत जारी है। राष्ट्रीय जलनीति के क्रियान्वयन हेतु निर्मित कार्य योजना में जल संरचनाओं के संरक्षण के लिए भी योजना बनाना तथा संरक्षण करना शामिल था परंतु इस दिशा में प्रगति नगण्य रही है। नदियों की भूमिका की नासमझी के कारण आज हमारी अधिकांश नदियां विनाश की कगार पर खड़ी हैं। पूर्व की बारहमासी नदियों में अब वर्षा के कुछ समय बाद ही पानी समाप्त सा हो जाता है।
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