साधना जैन
विश्व जल दिवस. प्रकृति स्वभाव से ही प्राणियों की सहचरी रही है। इसीलिए प्राकृतिक सौंदर्य को ईश्वरीय सृष्टि की विलक्षण कला का अनुपम नमूना माना जाता है। अगर प्रात:काल का सूर्य जीवन में सुखद संगीत का परिचय देता है तो कल-कल की ध्वनि के साथ बहती नदी की धारा जीवन-संगीत सुनाती है। मनुष्य ने शुरू से ही नदियों के महत्व को समझा और सहेजकर रखा, लेकिन ज्यों-ज्यों वह विकास की ओर अग्रसर होता गया, त्यों-त्यों प्रकृति में विभिन्न प्रकार से असंतुलन की स्थिति पनपती गई। कारण, हम प्रकृति को पोषक नहीं भोग्या समझने लगे।
मनुष्य ने प्रकृति के रहस्य को जानना चाहा, यहां तक तो ठीक था, लेकिन जबसे प्रकृति को वश में करना चाहा, समस्या तब खड़ी हो गई। इंसान जब तक पूर्ण स्वस्थ रहता है, तब तक वह कभी भी नहीं सोचता कि वह क्या, कितना, कब, कैसे खाता-पीता है, लेकिन जैसे ही अस्वस्थ होने लगता है, उसे सचेत होने की बहुत जरूरत होती है। नहीं तो स्थितियां विस्फोटक होने लगती हैं। यह बात नैसर्गिक चीजों पर भी लागू होती है। विकास के साथ-साथ आज प्रकृति अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत है।
सच तो यह है कि दसों दिशाओं में नदियों का यही हाल है। सभी प्रकार के जीवों ने नदी की गोद में ही अपने पंख पसारे और आज नदियां ही अपने जल को लेकर संकट झेल रही हैं। वास्तव में हम सभी का प्रकृति के प्रति बहुत ही बड़ा दायित्व है। बचपन जिन नदी, नालों और ताल से अठखेलियां करते हुए गुजारा था, वहां तो अब धूल उड़ रही है। जहां मीटरों ऊपर से कूदकर लोग स्नान करते थे। पशु-पक्षी जहां के किनारे पर पानी पी-पीकर अपनी प्यास शांत किया करते थे, वहां आज पानी का नामोनिशान नहीं। जहां कभी डूब जाने का डर था, आज वहां लोग पैदल चल रहे हैं।
कभी किसी ने नदियों को पुनर्जीवित करने के बारे में सोचा भी नहीं। जिन कुओं का पानी पी-पीकर हम बड़े हुए उनमें आज शहरभर का कचरा इकट्ठा हो रहा है। क्या हम इसी तरह मूकदर्शक बने रहकर अपने गांवों, शहरों के जलस्रोतों को बेपानी होते देखते रहेंगे? क्या हमारी ऐसी ही नियति बन गई है कि जो हमें सुख, शांति, खुशहाली और जीवन को सहारा देगा, हम उसको इसी तरह खत्म कर देंगे? आज हम आर्थिक विकास के दौर से गुजर रहे हैं और आने वाली पीढ़ियों के लिए शायद बड़ी संपत्ति बना रहे हैं, लेकिन जब पानी ही नहीं होगा, तो फिर रीते संसार में भरी-भरी तिजोरियां कुछ भी नहीं दे पाएंगी।
घर में जब पानी खत्म हो जाता है तो कितनी उथल-पुथल होती है। सोचें, जब हर बस्ती, हर गांव, हर शहर के ताल-तलक्ष्या, नदी, तालाब, कुएं सब रीत जाएंगे, तब क्या प्रलय नहीं आ जाएगी? हमें आने वाली पीढ़ी को विरासत में सबसे पहले पानी देने की चिंता करनी है, बाकी धन-धान्य तो बाद में भी इकट्ठा किया जा सकेगा।
पानी केवल एक शब्द नहीं, जीवन का एक हिस्सा भी नहीं, पानी पीने की एक वजह, एक रोशनी, एक उमंग या यों कहें कि जीवन ही है। आसमान तो आज भी बरसता है, लेकिन उसकी इस दुर्लभ अनुपम देन को हम सहेजने का प्रयास ही नहीं करते। हाल में संपन्न हुए नदी महोत्सव ने जन-जन में पानी को इकट्ठा करने, सहेजने, चिंता करने और उसे मितव्ययता के साथ खर्चने का संदेश जन-जन, गांव-गांव तक पहुंचाया। पानी के प्रति लोगों में चेतना जागृत करने के लिए कुछ अनूठे प्रयास होते रहने चाहिए। सभी को इन जलस्रोतों को बचाने की पहल अपने-अपने स्तर पर करनी ही होगी।
एक बंजारा जब एक तालाब खोदकर पूरे शहर की प्यास शांत करने का प्रयास कर सकता है, तब हम सभी मिलकर क्या नहीं कर सकते? अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संस्थाओं से पर्याप्त सहयोग लिया जा सकता है। जनसेवा, देशसेवा, नदी सेवा का संदेश देते ऐसे उत्सवों के माध्यम से बहुत कुछ संवारा जा सकता है। अभी भी सब कुछ नहीं बिगड़ा है। हां, बिगड़ने के कगार पर जरूर है। जीवनदायी इन जलस्रोतों की हमें फिक्र करना ही होगी वरना मूक दिखाई देने वाली प्रकृति की वक्रदृष्टि सर्वनाश करने से भी नहीं चूकेगी।
-लेखिका आकाशवाणी-दूरदर्शन कलाकार हैं।
http://www.bhaskar.com/2008/03/21/0803210009_water_day.html
गुरुवार, 8 मई 2008
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