संजय तिवारी
यह अनुपम मिश्र के एक लेख का शीर्षक है। इस लेख को लिखते हुए वे कहते हैं यह न अलंकरण है न अहंकार। अलंकरण और अहंकार से मुक्त अनुपम मिश्र का परिचय देना हो तो प्रख्यात पर्यावरणविद् कहकर समेट दिया जाता है। उनके लिए यह परिचय मुझे हमेशा अधूरा लगता है। फिर हमें अपनी समझ की सीमाओं का भी धयान आता है। हम चौखटों में समेटने के अभ्यस्त हैं इसलिए जब किसी को जानने निकलते हैं तो उसको भी अपनी समझ के चौखटों में समेटकर उसका एक परिचय गढ़ देते हैं। लेकिन क्या वह केवल वही है जिसे हमने अपनी सुविधानुसार एक परिचय दे दिया है। कम से कम अनुपम मिश्र के बारे में यह बात लागू नहीं होती। वे हमारी समझ की सीमाओं को लांघ जाते हैं। उनको समझने के लिए हमें अपनी समझ की सीमाओं को विस्तार देना होगा। अपने दायरे फैलाने होंगे। असीम की समझ से समझेंगे तो अनुपम मिश्र समझ में आयेंगे और यह भी कि वे केवल प्रख्यात पर्यावरणविद् नहीं हैं।
वे लोकजीवन और लोकज्ञान के साधक हैं। अब न लोकजीवन की कोई परिधि या सीमा है और न ही लोकज्ञान की। इसलिए अनुपम मिश्र भी किसी सीमा या परिचय से बंधो हुए नहीं हैं। हालांकि उन्हें हमेशा ऐतराज रहता है जब कोई उनके बारे में बोले-कहे या लिखे। उन्हें लगता है कि उनके बारे में लिखने से अच्छा है उनकी किताब 'आज भी खरे हैं तालाब' के बारे में दो शब्द लिखे जाएं। कितने लाख लोग अनुपम मिश्र को जानते हैं इससे कोई खास मतलब नहीं है, कितनी प्रतियां इस किताब की बिकी हैं सारा मतलब इससे है। तो क्या अनुपम मिश्र अपनी रायल्टी की चिंता में लगे रहने वाले व्यक्ति हैं जो अपनी किताब को लेकर इतने चिंतित रहते हैं? शायद। क्योंकि उनकी रायल्टी है कि समाज ज्यादा से ज्यादा तालाब के बारे में अपनी धारणा ठीक करे। पानी के बारे में अपनी धारणा ठीक करे। पर्यावरण के बारे में अपनी धारणा ठीक करे। भारत और भारतीयता के बारे में अपनी धारणा शुध्द करे। अगर यह सब होता है तो अनुपम मिश्र को उनकी रायल्टी मिल जाती है और किताब पर लिखा यह वाक्य आपको प्रेरित करे कि इस फस्तक पर कोई कॉपीराईट नहीं है, तो आप इस किताब में छिपी ज्ञानगंगा का अपनी सुविधानुसार जैसा चाहें वैसा प्रवाह निर्मित कर सकते हैं। यह जिस रास्ते गुजरेगी कल्याण करेगी।
1948 में अनुपम मिश्र का जन्म वरधा में हुआ था। पिताजी हिन्दी के महान कवि। यह भी आपको तब तक नहीं पता चलेगा कि वे भवानी प्रसाद मिश्र के बेटे हैं जब तक कोई दूसरा न बता दे। मन्ना (भवानी प्रसाद मिश्र) के बारे में लिखे अपने पहले और संभवत: एकमात्र लेख में वे लिखते हैं, 'पिता पर उनके बेटे-बेटी खुद लिखें यह मन्ना को पसंद नहीं था।' परवरिश की यह समझ उनके काम में भी दिखती है। इसलिए उनका परिचय अनुपम मिश्र है। भवानी प्रसाद मिश्र के बेटे अनुपम मिश्र कदापि नहीं। यह निजी मामला है। मन्ना उनके पिता थे और वैसे ही पिता थे जैसे आमतौर पर एक पिता होता है। बस! पढ़ाई लिखाई तो जो हुई वह हुई। 1969 में जब गांधी शांति प्रतिष्ठान से जुड़े तो एम.ए. कर चुके थे। लेकिन यह डिग्रीवाली शिक्षा किस काम की जब अनुपम मिश्र की समझ ज्ञान के उच्चतम धरातल पर विकसित होती हो। अपने एक लेख पर्यावरण के पाठ में वे लिखते हैं, 'लिखत-पढ़तवाली सब चीजें औपचारिक होती हैं। सब कक्षा में, स्कूल में बैठकर नहीं होता है। इतने बड़े समाज का संचालन करने, उसे सिखाने के लिए कुछ और ही करना होता है। कुछ तो रात को मां की गोदी में सोते-सोते समझ में आता है तो कुछ काका, दादा, के कंधों पर बैठ चलते-चलते समझ में आता है। यह उसी ढंग का काम है-जीवन शिक्षा का।'
अनुपम मिश्र कौन से काम की चर्चा कर रहे हैं। फिलहाल यहां तो वे पर्यावरण की बात कर रहे हैं। वे कहते हैं, 'केवल पर्यावरण की संस्थाएं खोल देने से पर्यावरण नहीं सुधारता। वैसे ही जैसे सिर्फ थाने खोल देने से अपराध कम नहीं हो जाते।' यानि एक मजबूत समाज में पर्यावरण का पाठ स्कूलों में पढ़ाने के भ्रम से मुक्त होना होगा और केवल पर्यावरण ही क्यों जीवन के दूसरे जरूरी कार्यों की शिक्षा का स्रोत भी स्कूल नहीं हो सकते। फिर हमारी समझ यह क्यों बन गयी है कि स्कूल हमारे सभी शिक्षा संस्कारों के एकमेव केन्द्र होने चाहिए। क्या परिवार, समाज और संबंधों की कोई जिम्मेदारी नहीं रह गयी है। अनुपम मिश्र के बहाने ही सही इस बारे में तो हम सबको सोचना होगा। अनुपम मिश्र तो अपने हिस्से का काम कर रहे हैं। जरूरत है हम भी अपने हिस्से का काम करें।
अनुपम मिश्र की जिस 'आज भी खरे हैं तालाब' किताब का जिक्र मैं ऊपर कर आया हूं उसने पानी के मुद्दे पर बड़े क्रांतिकारी परिवर्तन किये हैं। राजस्थान के अलवर में राजेन्द्र सिंह के पानी वाले काम को सभी जानते हैं। इस काम के लिए उन्हें मैगसेसे फरस्कार भी मिल चुका है। लेकिन इस काम में जन की भागीदारी वाला नुस्खा अनुपम मिश्र ने गढ़ा। राजेन्द्र सिंह के बनाये तरुण भारत संघ के वे लंबे समय तक अधयक्ष रहे। शुरुआत में राजेन्द्र सिंह के साथ जिन दो लोगों ने मिलकर काम किया उनमें एक हैं अनुपम मिश्र और दूसरे सीएसई के संस्थापक अनिल अग्रवाल। सच कहें तो इन्हीं दो लोगों ने पूरे कार्य को वैचारिक आधार दिया। राजेन्द्र सिंह ने जमीनी मेहनत की और अलवर में पानी का ऐसा वैकल्पिक कार्य खड़ा हो गया जो आज देश के लिए एक उदाहरण है। लेकिन अनुपम मिश्र केवल अलवर में ही नहीं रूके। वे लापोड़िया में लक्ष्मण सिंह की मदद कर रहे हैं, पहाड़ में दूधूतोली लोकविकास संगठन को पानी के काम की प्रेरणा दे रहे हैं और न जाने कितनी जगहों पर वे यात्रएं करते हैं और भारत के परंपरागत पर्यावरण और जीवन की समझ की याद दिलाते हैं।
हाल फिलहाल वे इंफोसिस होकर आये हैं। इंफोसिस फाउण्डेशन ने उनको सिर्फ इसलिए बुलाया था कि वे वहां आयें और पानी का काम देखें। अनुपम जी गये और कहा कि आपके पास पैसा भले बाहर का है लेकिन दृष्टि भारत की रखियेगा। भारत और भारतीयता की ऐसी गहरी समझ के साक्षात् उदाहरण अनुपम मिश्र ने कुल छोटी-बड़ी 17 फस्तकें लिखी हैं जिनमें अधिकांश अब उपलब्ध नहीं हैं। एक बार नानाजी देशमुख ने उनसे कहा कि आज भी खरे हैं तालाब के बाद कोई और किताब लिख रहे हैं क्या? अनुपम जी ने सहजता से उत्तर दिया- जरूरत नहीं है। एक से काम पूरा हो जाता है तो दूसरी किताब लिखने की क्या जरूरत है। अनुपम मिश्र को भले ही लिखने की जरूरत नहीं हो लेकिन हमें अनुपम मिश्र को बहुत संजीदगी से पढ़ने की जरूरत है।
संपर्क: गांधी शांति प्रतिष्ठान, दीनदयाल उपाध्याय रोड, नई दिल्ली - 110002
http://www.bhartiyapaksha.com
शुक्रवार, 16 मई 2008
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