माइक पाण्डे
आज से करीब 105 साल पहले अपने देश में बाघों की संख्या एक लाख थी। आज उनकी संख्या 3500 के पास सिमट कर रह गई है। वैसे पर्यावरण से जुड़े लोग इन आंकड़ों पर भी शक कर रहे हैं। आज चारों ओर बाघों की बातें हो रही है लेकिन पर्यावरण की दृष्टि से आज पृथ्वी को जो क्षति पहुंच रही है वह सबसे गंभीर समस्या है और इसको नजरअंदाज किया जा रहा है। हमारे सारे जंगलों को नुकसान पहुंच रहा है। बाघ तो सिर्फ एक नोक है इस पिरामिड का। दरअसल पृथ्वी पर बढ़ती हुई जनसंख्या ने इस ग्रह की शक्ल बदल डाली है। इसके कारण सिर्फ आज बाघ ही नहीं,मानव ही नहीं बल्कि पूरी पृथ्वी खतरे के कगार पर खड़ी है। बाघों का लुप्त हो जाना एक संकेत मात्र है कि मनुष्य व्दारा पृथ्वी पर संसाधनों के अंधाधुंध दोहन ने इस ग्रह को विनाश के कगार पर ला दिया है।
इसलिए बाघों का लुप्त होना एक गंभीर समस्या है। इसे खुले दिमाग से गंभीरता से लेने की आवश्यकता है कि बाघ लुप्त क्यों हो रहा है? सिर्फ लेक्चर,सेमिनार या भावनात्मक बातों से काम नहीं चलेगा। इसके लिए एक नई ठोस रणनीति बनानी होगी। बाघों के लुप्त होने में अवैध शिकार एक मुख्य समस्या है ही। लेकिन वर्षों से बाघों का वास स्थान का नष्ट होना भी एक कारण है। हमने अपने स्वार्थ के लिए जंगल को काट डाला है। इससे बाघों व जंगल के अन्य जीव-जन्तुओं के विचरण की परिधि सिमटती गयी। ऐसे वातावरण में जीव-जंतु जोकि जीवन को बनाए रखने के लिए एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं,उनका जिन्दा रहना मुश्किल हो गया। बिना मधुमक्खी के घास पैदा नहीं होगी,क्योंकि मधुमक्खियों के परागन के कारण ही घास बनती है। उस घास पर हिरण निर्भर है और हिरण पर बाघ निर्भर है। अगर इसमें से कोई एक,मधुमक्खी,घास या हिरण लुप्त हों जाए तो। ऐसी हालात में किसी भी जीव का जिंदा रहना मुश्किल हो जाएगा।
आज विश्व स्तर पर प्रतिदिन कई जीव-जंतु और वनस्तियों की प्रजातियाँ लुप्त हो रही है। उसी का एक हिस्सा बाघ भी है। आज से 50 साल पहले दुनिया में बाघों की आठ प्रजातियां थी। साइबेरियन टाइगर,बंगाल टाइगर,साउथ चाइना टाइगर,सुमात्रा टाइगर,रेस्पियन टाइगर,बाली टाइगर,और जावा टाइगर। इसमें तीन कैस्पयन टाइगर और जावा टाइगर की प्रजातियां पूरी तरह से लुप्त हो चुकी है। बाकी बची हुई प्रजातियों में से कई लुप्त होने के कगार पर हैं या अपने अस्तित्व की आखरी लड़ाई लड़ रही है। आज पूरी दुनिया में एक अनुमान के आधार पर 5000 से 7000 के बीच बाघ बचे हुए हैं। इसमें से करीब 60 फीसदी बाघ भारत में है,ऐसा माना जाता है। अपने पड़ोसी देशों - बंगलादेश में 300, भूटान में 60,चीन में 30,म्यांमार में 130-150,नेपाल में 90-100 और इंडोनेशिया में 400 बाघ हैं। अपने देश में अभी सरकारी अनुमानों के आधार पर कहा जा रहा है कि 3500 बाघ है। लेकिन हमारा व्यक्तिगत अनुमान है कि अपने देश में किसी भी हालात में 2500 से अधिक बाघ नहीं हैं। सरिस्का के बारे में कहा जा रहा था कि वहां 30 बाघ हैं। लेकिन वहां इधर एक भी बाघ नहीं दिखा है।
यही हाल पन्ना,इंदिरावती और पलामू का है। यहां कितने वर्षों से बाघ दिखा ही नहीं है। इससे साफ अनुमान लगाया जा सकता है कि अपने देश में 2500 से अधिक बाघ नहीं है। इसलिए यहां एक सवाल महत्वपूर्ण है कि क्या हम एक अरब से अधिक मानव आने वाले समय में इन 2500 बाघों को बचा पाएंगे? सरकारी आंकड़ों के अनुसार 1999 से 2003 के दरम्यान 411 बाघ जंगल में लुप्त हो गए। इसमें से 352 शिकारियों के निशाने का शिकार हुआ और 59 स्वाभाविक मौत मरे। ये रिपोर्ट पर आधारित आंकड़े हैं। इसके अलावा भी जंगल से बहुत बाघ लुप्त हो गए होंगे,जिसकी की हमें जानकारी ही नहीं है।
आज से करीब 30 साल पहले देश में प्रोजेक्ट टाइगर शुरू किया गया था। इसके लिए नेशनल पार्क और अभ्यारण बनाए गए लेकिन इसके इर्द-गिर्द रहने वाले गाँव के लोगों को इससे नहीं जोड़ा गया। उनको हमने अपने-आप से अलग कर दिया। जिसके कारण लोगों में बाघों के मारे जाने के प्रति कोई सहानुभूति नहीं है। हमने जंगल को नेशनल पार्क और अभ्यारण बनाकर उसके जीविका को अनदेखा कर वन्य जीव संरक्षण में लगे रहे। भारत के नेशनल पार्क,अभ्यारण्यों और 1000 रिसोर्टों से सिर्फ मुट्ठी भर लोगों को फायदा हो रहा है। गांववालों को इससे कोई फायदा नहीं हुआ इसलिए बाघों के मारे जाने पर इनमें कोई दुःख या रोष प्रकट नहीं होता। इनके आर्थिक जीवन को वन्य जीव संरक्षण से जोड़ना जरूरी है।
इसके लिए गांववालों को नेशनल पार्क अभ्यारण्यों और रिसोर्टो में नौकरी देने की आवश्यकता है। गांववालों को टूरिस्ट गाइ़ड का प्रशिक्षण दिया जाए ताकि यहां आने वाले पर्यटकों से इन्हें भी लाभ हो। किसी भी हालत में इनके आर्थिक हितों को वन्य जीवन संरक्षण से जोड़ना होगा तभी गांव वालों को इन जानवरों का महत्व समझ में आएगा और ये इसके संरक्षण के लिए आगे आएंगे। इंदिरा गांधी ने मनमोहन सिंह ने वन्य जीवों के संरक्षण का बीड़ा उठाया है। यह बहुत बड़ी बात है। बाघ को बचाने का मतलब है पृथ्वी को बचाना। बाघ किसी सरकार या देश का नहीं पृथ्वी की धरोहर है। बाघों को पृथ्वी से लुप्त होने से बचाना चाहिए क्योंकि ये हम सब की विरासत है। लेकिन बाघ को हम पिंजरे में नहीं रख सकते हैं। इसके लिए जंगल की जरूरत है और जंगल में ऐसा माहौल बनाना होगा जहां बाघ प्रजनन कर सकें। दुनिया में ऐसे बहुत से जानवर हैं जो अपने बच्चों के लिए उपयुक्त माहौल नहीं होने की स्थिति में प्रजनन नहीं करते हैं। उसमें से एक बाघ भी है।
इसलिए बाघ के रहने का मतलब है एक संपूर्ण जंगल और जंगल रहेगा तो साल भर पानी प्राप्त होगा। जंगल में घास के कारण जमीन में नमी बनी रहती है। इससे पूरे वर्ष पानी रहता है। इसलिए एक सूत्र है इस ग्रह पर सहअस्तित्व का कि कुदरत ने जो कुछ बनाया है उसका एस खास मकसद है। इसका एक उदाहरण है वांदवगढ़ के पास नेशनल पार्क का जो कि एक सूखे इलाके मे पड़ता है। यहां बाघों को तुम होने से बचाने के लिए जंगलो को संरक्षण दिया गया। जिसके कारण वैध या अवैध रूप से जंगलों को नष्ट नहीं किया गया। इसलिए इस जंगल में बाघ के साथ-साथ कई जीव-जन्तु हैं।
साथ ही जमीन में नमी के कारण यहां चरण गंगा नाम की नदी साल भर बहती है। इससे स्थानीय लोगों को पानी की किल्लत का सामना नहीं करना पड़ता है। इसलिए अब वक्त आ गया है ईमानदारी और निस्वार्थ सोचने का कि अगर बाघ जिंदा है तो यह प्रतीक है पर्यावरण संतुलन का। बाघ कुदरत के भोजन चक्र का सबसे महत्वपूर्ण जीव है और ये हमारे आंखों के सामने लुप्त हो रहे हैं। अगर आने वाले समय में बाघ पृथ्वी से लुप्त हो गया तो यह मानवता के लिए बहुत ही शर्म की बात होगी। बाघ पृथ्वी पर 6 करोड़ साल से रह रहा है और हम मानव को इस पृथ्वी पर आए कुछ ही लाख साल हुए हैं। इसलिए हमारा हक यह कतई नहीं बनता कि पृथ्वी के इस पुराने वाशिंदें को इस ग्रह से सदा के लिए खदेड़ दिया जाए।
खासकर हमारे देश में आज जंगल से बाघों का लुप्त होने का मतलब साफ है कि हम अपनी परंपरा और संस्कृति को भूलते जा रहे हैं कि हमारे पूर्वज पर्यावरण संतुलन को लेकर जागरूक नहीं थे। वे पूरी तरह जागरूक थे। उनकों इस बात का ज्ञान था कि हमारा जीवन इन जानवरों पर निर्भर करता है। यही कारण है कि हमारे जितने देवी-देवता हैं उनके साथ कोई न कोई जानवर जुड़ा है। पेड़ों,पहाड़ों और नदियों को पूजा जाता है। लेकिन विकास की इस अंधी राहों में हम गुमराह होते जा रहे हैं। इसका अंत कितना भयावह हो सकता है इसका हमें एहसास नहीं है।
अनजाने में हमने पृथ्वी के संतुलन को बिगाड़ दिया है। इसलिए हमें यह ज्ञान होना जरूरी है कि हम सब जीव-जंतू,पेड़-पौधे और इंसान प्रकृति के एक नाजुक काल चक्र से बंधे हुए हैं। मकड़ी का जाल जिस तरह आपस में जुड़ा रहता है ठीक उसी तरह हम सब एस दूसरे से जुड़े हुए हैं। इसमें से कोई एक गांठ खुल गई तो प्रकृति की इस सारी संरचना पर आज नहीं तो कल बुरा प्रभाव पड़ेगा। लेकिन हम मानव इसको मामने के लिए तैयार नहीं हैं।
हमें यह हर हाल में समझना होगा कि बाघों के खात्में का अर्थ जल,जीवन सभी के खात्मे से जुड़ा है। जिस दिन यह बात हमें समझ में आ जाएगी,बाघों का जीवन सुरक्षित हो जाएगा। छात्रों से सर्वोच्च न्यायालय तक की भूमिका है दूनघाटी के पर्यावरण संरक्षण में - बिष्ट परिवहन,श्रम एवं सेवायोजन तथा तकनीकी शिक्षा मंत्री हीरा सिंह बिष्ट ने कहा है कि दून घाटी में पर्यावरण की सुरक्षा से लिए लंबी लडाई लड़ी गई है जिसमें उनके (बिष्ट) ने डीएवी पीजी कालेज के छात्रों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक की भूमिका है। उन्होने कहा कि यदि मसूरी में टास्क फोर्स ने वृक्षारोपण न किया होता तो मसूरी देखने लायक भी न होती और हमने 1972 से 74 तक मसूरी और सहस्रधारा में धरने न दिये होते और सर्वोच्च न्यायालय हस्तक्षेप न करता तो आज देहरादून में समय पर वर्षा न होती,न ही पहाड़ बच पाते।
बिष्ट आज यहां राजपुर रोड पर एक होटल में उत्तरांचल पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड व्दारा विश्व पर्यावरण दिवस पर आयोजित संगोष्ठी में मुख्य अतिथि थे। बिष्ट ने कहा कि उन्होने हरिव्दार के नगर पालिकाध्यक्ष को भी सुझाव दिया है कि वह गंगा में अस्थि प्रवाह से हर की पौड़ी को बचाने के लिए उसकी धारा को मोड़ने का उपाय करें ताकि धार्मिक अंधविश्वास निश्च्छल धार्मिकों के साथ खिलवाड़ न बने। उन्होने ने कहा कि गंगा में गंदे नाले गिरना भी लोगों की आस्थाओं से खेलना है इसलिए उन सबके लिए सीवर ट्रीटमेंट प्लांट तत्काल लगाने की आवश्यकता है। बिष्ट ने कहा कि स्वर्गीय संजय गांधी तथा राजीव गांधी के दिये पाच सूत्री कार्यक्रम से ही आज सड़कों के किनारे पेड़ दिखाई देते हैं।
उन्होंने प्लास्टिक को पर्यावरण का शत्रु करार देते हुए कहा कि प्लास्टिक निर्माण पर ही प्रतिबंध लगाने की जरूरत है क्योंकि न इसका निर्माण होगा और न ही लोग इसका प्रयोग करेंगे। बिष्ट ने गंगोत्री और यमुनोत्री तक श्रध्दालुओं के वाहनों से जाने को भी खतरनाक करार देते हुये कहा कि धार्मिकता के लिए थोड़ा कष्ट उठाकर पैदल चलना चाहिए। उन्होने ने कहा कि पहाड़ों में डायनामाईट से सड़के चौड़ी करने के भी खतरनाक परिणाम निकल रहे हैं क्योंकि जब गाड़ियां चलती है तो पत्थर लुढ़कते रहते हैं। उन्होने पर्यावरण रक्षा के नाम पर अव्यवहारिक व्यवस्थाओं की भी खुलकर आलोचना की और कहा कि सेंचुरी का अर्थ यह नहीं होना चाहिए कि लोग अपने खेतों में भी न जा सकें। इससे नीतियों के उद्देश्यों से अलगाव पैदा होता है। उन्होंने कहा है कि वन संरक्षण अधिनियम 1980 विकास में बाधक नहीं बनना चाहिए क्योंकि यदि किसी विकास कार्य में 30 पेड़ कटते हैं तो हम उसके स्थान पर दो सौ पेड़ लगाने को तैयार हैं। उन्होंने कहा है कि देहरादून जैसे शिक्षा केन्द्र में
पर्यावरण महत्वपूर्ण लक्ष्य है। इससे पूर्व विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष मातबर सिंह कंडारी ने कहा कि वृक्षारोपण में हरड़,बहेड़ा,आंवला और आम को प्राथमिकता दी जानी चाहिए और सबसे बड़ी बात है कि हर गांव,हर कस्बे और शहर का अपना वन होना चाहिए। तभी वनों को अग्निकांडों से भी बचाया जा सकता है। कंडारी ने कहा कि रेगिस्तान में बसे इजराईल में ओंस की बूंदे तक एकत्र की जाती हैं लेकिन हम पहाड़ों में चाल और खाल तक नहीं बना पा रहे। पर्यावरणवादी पद्मभूषण चंडी प्रसाद भट्ट ने कहा कि समृध्द और सुंदर हिमालय में पर्यावरण की दृष्टि से नये संवेदनशील स्थलों की पहचान करके उसकी रक्षा के उपाय होने चाहिए। उन्होनें कहा कि हिमालय से निकलने वाली नदियों से भारत को 33 प्रतिशत जल मिलता है और यदि हिमालय को उजाड़ना बंद नहीं किया तो उत्तर भारत में भी सतलुज जैसी तबाही आ सकती है। उन्होने कहा है कि उत्तरांचल प्रकृति संरक्षण के समृध्द परंपरा है। उन्होने भी ग्राम वनों की जरूरत बताते हुये कहा कि इसके बिना ग्रामीणों को हरा चारा व जलावन नहीं मिलेगा। उन्होंने कहा कि 1960 तक मोपेश्वर की जनसंख्या 600 थी जो अब बढ़कर 16 हजार हो गई है। उन्होंने कहा है कि हमें अपनी आवश्यकतायें मर्यादित करनी चाहिए लेकिन फिर भी शहरों और नगरों के वन के विचार को अमल में लाया जाना चाहिए। उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता एम.सी.मेहता ने कहा कि आज आम जनमानस एवं राजनीतिक दलों की करनी-कथनी में समानता न होने के कारण ही इस दिशा में पूर्ण सफलता नहीं मिल पाई है। उन्होंने कहा कि कानून होने के बावजूद जिस तरह वन या जल प्रदूषित हो गए हैं। उस दिशा में यदि अभी कोई पुख्ता कार्यवाही न की गई,तो भविष्य में इसके गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं।
मुख्य वक्ता के रूप में मेहता ने एक दिन के स्थान पर वर्ष भर पर्यावरण संरक्षण की दिशा में कार्य करने का आह्वान करते हुए स्पष्ट कहा कि इस दिशा में पूर्ण सफलता तभी प्राप्त हो सकती है,जब आम जनता के साथ ही राजनीतिक दलों को भी अपनी करनी-कथनी में समानता लानी होगी। आज जिस तरह से पर्यावरण संरक्षण को लेकर दोहरी नीति अपनाई जा रही है,वह चिंता का विषय है। यदि इस दिशा में अभी पुख्ता कार्यवाही न की गई,तो भविष्य में उसका खामियाजा आने वाली पीढ़ी को भुगतना पड़ सकता है। कार्यक्रम में अपर मुख्य सचिव एम रामचन्द्रन,बोर्ड की अध्यक्ष तथा प्रमुख सचिव श्रीमती विभापुरी दास के अलावा सदस्य सचिव सी बी एस नेगी भी थे।
हिन्दुस्तान टाइम्स (नई दिल्ली), 12 Jun. 2005
गुरुवार, 8 मई 2008
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें