शनिवार, 24 मई 2008

पानी की बर्बादी पर लगाएं अंकुश

भास्कर न्यूज
जयपुर. कई वर्षो से भूमिगत जल का अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है, वर्षा का असमान वितरण होने से भी कई जिले सूखे की मार झेलते हैं, ऐसे में कोई समुचित योजना बनाए जाने की जरूरत है ताकि कृषि पुन: विकास का मार्ग पा सके।

आज भारत के अधिकांश राज्य सूखे की चपेट में हैं। राजस्थान के अधिकांश जिले सूखे की मार झेल रहे हैं। सूखे की स्थिति अचानक उत्पन्न हुई हो, विगत कई वर्षो से भूमिगत जल का अंधाधुंध दोहन, वृक्षों की अनियमित कटाई एवं उपलब्ध जल संसाधनों का समुचित उपभोग न करना, इसके मूल कारण रहे हैं। भारत में औसतन 1194 सेमी वार्षिक वर्षा होती है, जो असामान्य रूप से वितरित रहती है।

यह वर्षा जल हमारी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त है, किंतु कोई समुचित योजना नहीं होने से अधिकांश जल व्यर्थ चला जाता है। कृषि क्षेत्र की संग्रहीत जल पर निर्भरता कम है। प्राचीनकाल में कृषि झीलों एवं कृत्रिम टैंकों पर निर्भर थी। इनसे न केवल फसलों को जल उपलब्ध होता था, बल्कि भूमिगत जलस्तर भी नियंत्रित रहता था। लगभग एक सदी पूर्व तक भारतीय कृषि का लगभग पचास प्रतिशत संग्रहीत जल पर निर्भर था, किंतु अब यह निर्भरता मात्र दस प्रतिशत ही रह गई है।

विशाल सिंचाई परियोजनाओं के कारण कई तालाबों, झीलों का अस्तित्व ही समाप्त होता जा रहा है। टच्यूबवैल पर आधारित कृषि को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। तीस के दशक में टच्यूबवैल पर आधारित सिंचाई व्यवस्था प्रारंभ हुई थी। इस व्यवस्था पर आधारित कृषि के अंधाधुंध फैलाव के कारण जलस्तर तेजी से घटता जा रहा है। कृषि में जल का अत्यधिक उपयोग भी जल संकट उत्पन्न कर रहा है।

भारत में उपलब्ध पानी का 40-45 प्रतिशत भाग सिर्फ धान की खेती में खर्च हो रहा है, जबकि इसमें से भी 30-40 प्रतिशत जल बचाया जा सकता है। बूंद-बूंद सिंचाई योजना इसके लिए उपयोगी सिद्ध हो सकती है। घरेलू क्षेत्र में स्थिति और भी अधिक विकट है। नित्य लगभग 15 हजार मिलियन दूषित जल का उत्सर्जन हो रहा है। इस जल को भी रसायनों से उपचारित कर पुन: उपयोग में लिया जा सकता है।

अपशिष्ट जल से न सिर्फ नदियों का प्रदूषण बढ़ रहा है, अपितु अनेक रोग भी पनप रहे हैं। ऐसे जल से प्रतिवर्ष 15 लाख बच्चे हैजे के कारण पांच वर्ष की आयु पूर्ण करने से पहले ही काल कवलित हो जाते हैं। जल का दोहन और इसका दुरुपयोग करना भारतीय उद्योगों की आदत में शुमार हो चुका है। कागज के उद्योगों में अधिकांश जल व्यर्थ ही बह जाता है। लगभग 300 मिलियन लीटर पानी इस उद्योग में खर्च हो जाता है। इससे प्रदूषित हुए जल से भूमिगत जल भी प्रदूषित होता जा रहा है।

राजस्थान के जोधपुर, पाली और बालोतरा के वस्त्र उद्योग प्रतिदिन 20 मिलियन रासायनिक जल खुले नालों, नदियों एवं कुओं में विसर्जितकर रहे हैं, जो भूमिगत जल में समाहित होकर सीधे मानव, पशु और फसलों को प्रभावित कर रहे हैं। जल उपचार संयंत्र लगाकर इस समस्या से निजात पाई जा सकती है।

अब समय आ गया है कि जल के समुचित उपयोग के लिए प्रदूषित जल का उपचार कर पुन: काम में लेने के लिए कोई विस्तृत योजना बनाई जाए, अन्यथा सूखे की समस्या हमें भस्मासुर की तरह निगल जाएगी।
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