शनिवार, 24 मई 2008

पानी गए न ऊबरे...

हममें से कोई भी ऐसा नहीं जिसे पानी की अहमियत का पता न हो. हम ये भी जानते हैं कि हमारी धरती पर इसकी एक सीमित मात्रा ही मौजूद है और जल संरक्षण होना चाहिए. बावजूद इसके हम इसे लापरवाही से खर्चते रहते हैं शायद ये सोचते हुए कि ये कभी खत्म ही नहीं होने वाला और अगर ऐसा होगा भी तो वो दिन अभी काफी दूर है.

मगर दुर्भाग्य कि ऐसा है नहीं. विश्व बैंक ने भारत को चेतावनी दी है कि जल्द ही वो पानी के गंभीर संकट का सामना करने वाला है और सरकार को अपनी जल प्रबंधन नीतियों में बड़े पैमाने पर बदलाव की जरूरत है. बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक अगर ऐसा नहीं किया गया तो भारत के पास अपनी अर्थव्यवस्था और लोगों के लिए पानी नहीं होगा. रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि भारत में सिंचाई के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला 70 फीसदी और घरेलू जरूरत का 80 फीसदी पानी अब तेजी से खत्म हो रहे भूमिगत स्रोतों से आ रहा है.

भीषण गर्मी दस्तक दे रही है और कुछ ही दिनों में भारत की राजधानी दिल्ली हर साल की तरह जल संकट की चपेट में आ जाएगी. दिल्ली की एक करोड़ 60 लाख की आबादी में से ज्यादातर को इस परेशानी का सामना करना पड़ेगा. हम किस दिशा में बढ़ रहे हैं इसका अंदाजा इस छोटी सी खबर से ही लगाया जा सकता है कि हाल ही में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर तक के आवास में पूरे दिन पानी नहीं आया.

विशेषज्ञ कहते हैं कि रियल एस्टेट की तरक्की और बाहरी इलाकों में खेती की जमीन की वजह से राजधानी की लचर जल आपूर्ति व्यवस्था, जो अपनी जरूरत के लिए मुख्य रूप से यमुना से रोज़ाना मिलने वाले 24 करोड़ गैलन के कोटे पर निर्भर है, पर सबसे ज्यादा दबाव पड़ रहा है. जल की उपलब्धता बढ़ सकती है मगर तभी जब दिल्ली 95 करोड़ गैलन के उस कचरे का कुछ और इंतजाम करे जिसे रोज यमुना के हवाले कर दिया जाता है. इसके साथ ही दिल्ली जल बोर्ड (डीजेबी) को भी पानी के 5600 मील लंबे नेटवर्क की मरम्मत की जरूरत है जिसकी हालत इतनी खराब है कि पानी की सप्लाई का 40 फीसदी हिस्सा यूं ही बह जाता है. राउरकेला स्टील प्लांट को रोज 28 करोड़ लीटर पानी की जरूरत होती है. एनटीपीसी के लिए ये आंकड़ा 13 करोड़ लीटर है और नाल्को के लिए 6.3 करोड़. ये सारा पानी ब्राह्मणी नदी से आता है.

देश में जल संरक्षण के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम करने वाले राजेंद्र सिंह कहते हैं, “देश के सबसे विकसित शहरों से होकर गुजरने वाली नदियां सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं. दिल्ली में यमुना, हैदराबाद में मुसी और चेन्नई में अडयार को देखकर कहीं से भी इनके नदी होने का अहसास नहीं होता. ये गंदा नाला लगती हैं. छोटे कस्बों का भी यही हाल है. राजस्थान के बाड़मेर जिले से होकर गुजरने वाली लूनी नदी 300 से भी ज्यादा कपड़ा मिलों से निकलने वाले कचरे की वजह से मरने के कगार पर है.”

सिंह मानते हैं कि अगर इस समस्या का कोई समाधान है तो वो ये है कि भारतीयों से पानी की कीमत वसूली जाए. वो कहते हैं, “कीमतें तीन गुनी ज्यादा कर दी जानी चाहिए.” आंकड़ों पर नजर डालें—दिल्ली में प्राइवेट टैंकर 5000 लीटर पानी की सप्लाई के लिए 600 रुपये वसूलते हैं. ये रकम उस मासिक शुल्क से दोगुनी है जो दिल्ली जल बोर्ड पानी की आपूर्ति के लिए औसतन हर घर से वसूलता है. सरकारी रिकॉर्ड बताते हैं कि डीजेबी पानी की सप्लाई को सुधारने के लिए पहले ही 800 करोड़ रुपये खर्च कर चुका है मगर इससे भी हालात में कोई खास फर्क नहीं आया है.

आशंकाएं जताई जा रही हैं कि वातावरण में बदलाव के साथ उत्तर भारत की नदियों में पानी कम होता जाएगा. इसी कारण योजनाकार एकमत हैं कि संरक्षण के बिना काम चलने वाला नहीं है. दिल्ली स्थित सामाजिक कार्यकर्ता मंजुला सेन कहती हैं, “और अधिक पानी की मांग को लेकर मुझे रोज 50 से भी ज्यादा लोगों के फोन आते हैं और जब मैं कहती हूं कि और पानी नहीं है तो उनमें से ज्यादातर का पारा उबलने लगता है.” 2010 में आयोजित होने वाले राष्ट्रकुल खेलों और यमुना के किनारे बनने वाले खेल और मनोरंजन परिसर को लेकर सेन काफी चिंतित हैं. उनके मुताबिक इससे पहले से ही संकट का सामना कर रही दिल्ली की जल आपूर्ति व्यवस्था पर बहुत ज्यादा दबाव पड़ेगा.

दिल्ली ही नहीं लगभग सभी शहरों में जल वितरण व्यवस्था की हालत खराब है. अनुमानों के मुताबिक भारत के पास 1.4 खरब क्यूबिक यार्ड्स पानी का भंडार है और पानी की मांग का निकट भविष्य में ही इस आंकड़े के पार जाना तय है. फिलहाल देश लगभग 829 अरब क्यूबिक यार्ड्स पानी का इस्तेमाल करता है. गंगा की सफाई के लिए पिछले तीन दशक से संघर्षरत डॉ. वीरभद्र मिश्रा कहते हैं, “जरूरत इस बात की है कि भारतीयों को पानी के प्रति जिम्मेदारी महसूस करवाई जाए.”

देश में अलग-अलग जगहों पर एक वैश्विक अभियान के तहत वर्षाजल संरक्षण कार्यक्रम चलाने वाली कोका-कोला इंडिया के सीईओ अतुल सिंह कहते हैं, “दिल्ली, गुजरात, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और तमिलनाडु जैसे राज्यों में भूमिगत जल का स्तर तेजी से गिरा है. इनमें से ज्यादातर जगहों पर मिट्टी सख्त है और इस कारण अगर बारिश अच्छी भी हो तो भी ये पानी भूमिगत स्रोतों तक नहीं पहुंचता.”

और भी कंपनियां हैं जिन्हें जल संरक्षण की अहमियत समझ में आने लगी है. बैंगलोर की इंफोसिस को ही लीजिए जिसने इस्तेमाल किए हुए पानी को साफ कर इसे दोबारा इस्तेमाल करने की नीति सख्ती से लागू कर रखी है. कंपनी के एक अधिकारी कहते हैं, “पौधों की सिंचाई के लिए ताजा पानी इस्तेमाल नहीं किया जाता. पानी के संरक्षण की जरूरत है.”

एक विकासशील अर्थव्यवस्था में तरक्की की रफ्तार बनाए रखने के लिए जल प्रबंधन की भूमिका बेहद अहम है. सूखे की दृष्टि से संवेदनशील उड़ीसा में नए उद्योगों की स्थापना के लिए सरकार ने पिछले तीन साल में 42 सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर कर तो दिए हैं मगर उसे वास्तव में ये पता नहीं कि पॉस्को, वेदांत, आर्सेलर मित्तल और टाटा की विशाल परियोजनाओं के लिए वो पानी कहां से देगी. एक गैरसरकारी संगठन के कार्यकर्ता नागेंद्र महाराणा कहते हैं, “ स्टील उद्योग में आप केवल बारिश के पानी पर ही निर्भर नहीं रह सकते. इस उद्योग में दहकते स्टील को ठंडा करने के लिए भारी मात्रा में पानी की जरूरत होती है क्योंकि 70 फीसदी पानी तो उड़ जाता है. राणा कुछ दिलचस्प आंकडों का हवाला देते हैं—राउरकेला स्टील प्लांट को रोज 28 करोड़ लीटर पानी की जरूरत होती है. एनटीपीसी के लिए ये आंकड़ा 13 करोड़ लीटर है और नाल्को के लिए 6.3 करोड़. ये सारा पानी ब्राह्मणी नदी से आता है. एक बार जब दूसरी परियोजनाएं भी शुरू हो जाएंगी तो फिर क्या होगा? पानी के प्राकृतिक स्रोतों की बहुतायत वाले केरल में अब बोतलबंद पानी का व्यवसाय खूब फल-फूल रहा है. कुछ साल पहले शुरू हुए इस उद्योग की तरक्की का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बिक्री के मामले में बोतलबंद पानी ने सॉफ्ट ड्रिंक्स को भी पीछे छोड़ दिया है.

इससे भी ज्यादा चिंता में डालने वाली बात ये है कि पानी की समस्या केवल परंपरागत रूप से सूखे की मार झेलने वाले इलाकों तक ही सीमित नहीं है. गुवाहाटी निवासी नीलाक्ष दास को ही लीजिए जो, विशाल ब्रह्मपुत्र नदी के पास रहने के बावजूद हर महीने पानी के लिए 3000 रुपये खर्च करते हैं. दास कहते हैं, “एक वक्त था जब जरूरत से काफी ज्यादा पानी मिलता था. अब कई-कई दिन तक ये आता ही नहीं है.” इसका कारण है टूटी-फूटी पाइपलाइनें. यहां के लोग ब्रह्मपुत्र के किनारे पर टहल तो सकते हैं मगर इसका पानी अपने घर तक पहुंचाने के लिए उन्हें प्राइवेट टैंकरों की सहायता लेनी पड़ती है.

जम्मू कश्मीर के एक गांव अगलार के रहने वाले गुलाम रसूल शेख का हाल भी कुछ-कुछ ऐसा ही है. एक नहर से पानी लाने के लिए उन्हें मीलों पैदल चलना पड़ता हैं. 1600 लीटर पानी उनके दरवाजे तक पहुंचाने के लिए एक ट्रैक्टरवाला 500 रुपये तक वसूलता है. मगर सवाल ये है कि ऐसे कितने लोग हैं जो रोज पानी खरीदने का खर्चा वहन कर सकते हैं?

दक्षिण के राज्यों में भी स्थितियां और भी खराब हैं. केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु में तो पानी के बंटवारे को लेकर हो रही लड़ाई जगजाहिर है. केरल के एलोर-एडयार औद्योगिक क्षेत्र में स्थित करीब 250 फैक्ट्रियों का कचरा मध्य केरल की जीवनरेखा कही जाने वाली पेरियार नदी में गिरता है और इस वजह से इसमें प्रदूषण का स्तर बहुत ज्यादा है. इस प्रदूषण के खिलाफ एक मुहिम चलाने वाले संगठन के मुखिया पुरुषन एलोर कहते हैं, “इस इलाके में काफी परिवार ऐसे हैं जिन्हें पीने का पानी भी नहीं मिलता.” पेरियार को बचाने के लिए बनी एक कमेटी के चेयरमैन नीलकांतन कहते हैं कि नदी में गिरने वाले जहरीले कचरे की भारी मात्रा को रोकने की जरूरत है. केरल के सबरीमाला इलाके को हराभरा बनाने वाली पांबा नदी भी प्रदूषण के चलते मरने के कगार पर पहुंच चुकी है. कोच्चिकोड़े स्थित जल संसाधन विकास और प्रबंधन केंद्र के विशेषज्ञों के मुताबिक राज्य के ज्यादातर जल स्रोत न सिर्फ प्रदूषण की चपेट में हैं बल्कि आकार में भी सिकुड़ रहे हैं जिससे पेयजल को लेकर गंभीर संकट पैदा हो सकता है.

विडंबना ये है कि पानी के प्राकृतिक स्रोतों की बहुतायत वाले केरल में अब बोतलबंद पानी का व्यवसाय खूब फल-फूल रहा है. कुछ साल पहले शुरू हुए इस उद्योग की तरक्की का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बिक्री के मामले में बोतलबंद पानी ने सॉफ्ट ड्रिंक्स को भी पीछे छोड़ दिया है. यहां तक कि राज्य का जल प्राधिकरण और दुग्ध सहकारी संगठन मिलमा भी अपने ब्रांड का बोतलबंद पानी बाजार में बेचते हैं.

पड़ोसी राज्य तमिलनाडु की हालत भी कुछ अलग नहीं. चेन्नई के बसंत नगर में रहने वाले शेखर राघवन वर्षाजल संरक्षण तकनीकों के बारे में जागरूकता फैलाते हैं. वो कहते हैं, “हमारे कुएं में पानी का स्तर बस चार फीट हुआ करता था मगर इस बार मानसून के बाद ये गिरकर 14-15 फीट तक पहुंच गया. कई जगहों पर पानी खारा भी हो गया है.”

शेखर का जागरुकता अभियान मीडिया का ध्यान खींचने में भी कामयाब हुआ. 2002 में शेखर ने जल संरक्षण के बारे में जानकारी का विस्तार करने के लिए शहर में एक रेन सेंटर की स्थापना की. 2003 में सरकार ने एक कानून लागू कर सभी इमारतों में वर्षाजल संरक्षण को अनिवार्य बना दिया. शेखर कहते हैं कि इससे हालात में सुधार हुआ है. दक्षिण चेन्नई के पॉश इलाके गांधीनगर में 50 फीसदी घरों ने ये व्यवस्था अपनाई तो 13 साल से सूखे पड़े इस इलाके के थिरुवनमयूर मंदिर के कुएं में जनवरी 2006 में फिर से पानी फूट पड़ा.

शेखर के मुताबिक किसी सामान्य घर के लिए वर्षाजल संरक्षण तकनीक का खर्च 3000 रुपये आता है जबकि बड़े व्यापारिक प्रतिष्ठानों के लिए ये कुछ लाख तक हो सकता है. वो कहते हैं, “अगर हम सभी एक साथ ये कर लें तो ये बस एक बार का निवेश है. इसके बाद हममें से किसी को भी पानी के लिए पैसा खर्च करने की जरूरत नहीं होगी. ये जिंदगी भर के लिए मुफ्त में उपलब्ध होगा.”

शेखर के ये शब्द एक जटिल समस्या का सरल समाधान पेश करते हैं. इसकी खूबी इस बात में छिपी है कि ये संरक्षण का एक ऐसा तरीका है जिसे सामुदायिक कार्य के रूप में शुरू किया जा सकता है. इसका ग्रामीण स्वरूप (चेक डेम और जल संरक्षण की परंपरागत तकनीकें) पीढ़ियों से अच्छा काम कर रहा हैं. बात रही शहरी भारतीयों की तो उनके पास जल्द ही सिर्फ तीन विकल्प होंगे. नल से पानी की धार के लिए अंतहीन इंतजार, प्राइवेट सप्लायरों से महंगी दर पर पानी की खरीद या फिर जल संरक्षण.

शांतनु गुहा रे

(बैंगलोर से संजना, चेन्नई से पीसी विनोज कुमार, दिल्ली से मॉर्गन हेरिंग्टन, गुवाहाटी से टेरेसा रहमान, कोच्चि से के ए शाजी, श्रीनगर से पीरजादा अरशद हामिद और भुवनेश्वर से बिभूति पति के योगदान के साथ.)
http://www.tehelkahindi.com

1 टिप्पणी:

Suresh Gupta ने कहा…

विस्तृत विश्लेषण के लिए धन्यवाद. काफ़ी जानकारी मिली. लेख से एक पंक्ति लेता हूँ.
"बात रही शहरी भारतीयों की तो उनके पास जल्द ही सिर्फ तीन विकल्प होंगे. नल से पानी की धार के लिए अंतहीन इंतजार, प्राइवेट सप्लायरों से महंगी दर पर पानी की खरीद या फिर जल संरक्षण."

पहला विकल्प सोचकर ही दिल घबराता है. दूसरा विकल्प आम आदमी के लिए है ही नहीं. तीसरा विकल्प है जो सही है, सम्भव है और सामाजिक जिम्मेदारी का हिस्सा है.
जल और जीवन एक हैं,
जल संचय तो जीवन संचय,
जल का क्षय है जीवन का क्षय.