25 Feb, 2008 | 10:11 PM
बांद्राभान में हुए अंतरराष्ट्रीय नदी महोत्सव में प्रमुख रूप से दो निष्कर्ष उभरकर सामने आए। एक- नदियां नहीं बचीं, तो मानव ही नहीं, बल्कि जीवमात्र का अस्तित्व संकट में फंस जाएगा। दो- नदियां बचाने की जिम्मेदारी केवल सरकारों पर नहीं छोडी जा सकती है, बल्कि यह काम जनजागृति और जनभागीदारी से ही संभव हो सकता है। नदियों को बचाने में लगे तपस्वियों ने जो ये दो निष्कर्ष निकाले हैं, इनमें अनोखा कुछ नहीं है, न ही इन निष्कर्षों पर पहुंचने के लिए बहुत ज्यादा समझदार होने की जरूरत है। सब जानते हैं कि जल ही जीवन है और अमृत की यह बूंदें नदियों से ही मिलती हैं।
अतः सवाल यह है कि जब देश का एक-एक नागरिक जल और नदियों के महत्व से परिचित है, तो फिर हम सब मिलकर अनुपम मिश्र और फरहाद कांट्रेक्टर जैसे लोगों से प्रेरणा क्यों नहीं लेते और क्यों नदियों को बचाने के महायज्ञ में अपनी ओर से एक आहुति नहीं होमते? कोई जरूरी नहीं कि इसके लिए नदियों की सफाई में ही भागीदारी की जाए। इसमें भागीदारी हो तो बेहतर और न हो पाए, तो कोई बात नहीं। यदि हमने अपने घर के आसपास के वर्षा के जल को सहेजने का संकल्प ले लिया और उस पर अमल भी कर लिया तो समझो कि हमारे हिस्से का काम पूरा हुआ। नदियों का संरक्षण पर्यावरण और जैव विविधता के साथ ही साथ वन संरक्षण से भी जुडा हुआ है। ऐसा नहीं हो सकता कि जंगल तो कटते चले जाएं, फिर भी नदियां सदानीरा बनी रहें। ऐसा भी संभव नहीं है कि जीव-जंतुओं, पशु-पक्षियों की प्रजातियां लुप्त होती रहें और इनका नदियों के जल स्तर पर कोई फर्क न पडे। इसीलिए यदि हम अपनी ओर से कुछ पेड लगाते हैं, उनकी देख-रेख करते हैं या फिर वन और वन्यजीव माफिया के खिलाफ उठ खडे होते हैं, तो यह काम भी प्रकारांतर से नदियों के संरक्षण की दिशा में उठाया गया एक कदम ही है। पॉलिथीन पर्यावरण पर एक गंभीर संकट है। इसे अगर जलाओ तो वायु प्रदूषित होती है और कहीं फेंक दो तो भी वह पर्यावरण पर संकट बनती है। इससे बचने का उपाय केवल यही है कि इसके उपयोग पर प्रतिबंध लगाया जाए और सच यह है कि प्रतिबंध लगाने से भी बात नहीं बनेगी। इसके विपरीत यदि हमने पॉलिथीन का उपयोग न करने का संकल्प ले लिया और उस पर कडाई से अमल किया, तो पर्यावरण पर से एक बडा भारी संकट टल जाएगा।
क्या हम इसके लिए तैयार हैं? यदि इस प्रश्न का उत्तर हां है, तो मान लो कि हम अप्रत्यक्ष रूप से नदियों का ही संरक्षण कर रहे हैं। इस पर अभी कोई शोध नहीं हुआ है कि नदियों को सुखाने में पॉलिथीन का कितना योगदान है, लेकिन बरसात के मौसम में ऐसे शहरों में भी जो बाढ आती है, जहां न नदियां हैं, न नाले, उसमें पॉलिथीन का योगदान अब जगजाहिर है। कुल मिलाकर पर्यावरण संरक्षण का कार्य जनभागीदारी के बिना संभव नहीं है। यह ठीक है कि फैक्ट्रियों, कारखानों का जो गंदा पानी नदियों को प्रदूषित कर रहा है, उसे रोकने में सरकारों की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है, लेकिन सरकारें ऐसा पर्यावरण हितैषी निर्णय भी तभी लेंगी, जब उन पर जन दबाव होगा और उन्हें अपनी सत्ता खतरे में पडी दिखेगी।
शुक्रवार, 6 जून 2008
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